जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से लगभग 1 डिग्री बढ़ गया है. यदि वर्तमान उत्सर्जन स्तर बना रहा तो इस सदी के मध्य तक इसमें अतिरिक्त 1.5°C से 2°C तक इजाफा होने की आशंका है. तापमान में यह परिवर्तन कृषि क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव डाल रहा है, जिससे फसल की पैदावार, पानी की उपलब्धता और पशुधन स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. भारत जैसे कृषि प्रधान देशों में, जह डेयरी क्षेत्र प्राकृतिक चारे पर ज्यादा निर्भर है, चारे और फीड की उपलब्धता पर पड़ने वाला प्रभाव एक बड़ी चिंता का विषय है.
अनियमित वर्षा पैटर्न, बढ़ते तापमान और बार-बार पड़ने वाले सूखे के कारण इन पशु फीड स्रोतों की कमी और गुणवत्ता खतरे में पड़ गई है. पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एक रिसर्च पेपर के अनुसार राजस्थान, महाराष्ट्र और गुजरात जैसे सूखाग्रस्त राज्यों में बदलते मॉनसून पैटर्न के कारण चारे की उपलब्धता में भारी कमी आई है. इन क्षेत्रों में बार-बार पड़ने वाले सूखे के कारण चारागाह भूमि सिकुड़ती जा रही है, जिसके चलते किसानों को महंगे फीड विकल्पों पर निर्भर रहना पड़ रहा है.
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इसके आलावा अधिक तापमान चारे के पोषक तत्वों की मात्रा और समग्र गुणवत्ता को कम करता है, जिससे डेयरी पशुओं का स्वास्थ्य, उत्पादकता और दूध की पैदावार प्रभावित होती है. प्राकृतिक चारे की कमी के कारण किसानों की पशु आहार कंपनियों द्वारा बनाए गए महंगे फीड पर बढ़ती निर्भरता ने डेयरी व्यवसाय से उनका मोहभंग करना शुरू कर दिया है, क्योंकि ये फीड अक्सर छोटे किसानों के लिए आर्थिक रूप से लाभप्रद नहीं होते हैं.
जलवायु परिवर्तन अनाज उत्पादन को भी प्रभावित कर रहा है, जिससे कीमतों में अस्थिरता और आपूर्ति संबंधी समस्याएं पैदा हो रही हैं. अनाज निर्यात करने वाले देशों में मौसम संबंधी घटनाओं के कारण अनाज की कीमतों में आने वाले उतार-चढ़ाव ने पशु फीड की लागत में वृद्धि की है और डेयरी फार्मों के लाभ मार्जिन कम हो रहा है. भारत का डेयरी उद्योग मुख्य रूप से सीमित पशुधन और न्यूनतम संसाधनों वाले छोटे किसानों से बना है. ये किसान जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहे हैं. एनिमल फीड, पानी और पशु चिकित्सा देखभाल के लिए बढ़ी हुई लागत से लाभ का दायरा सिकुड़ता जा रहा है.
जलवायु परिवर्तन के कारण चारे की बढ़ती लागत छोटे किसानों की आय को 15-25 फीसदी तक कम कर सकती है. इसके अलावा, सिंचाई पर निर्भर चारा फसलें पानी की कमी से बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं, जिससे दीर्घकालिक स्थिरता खतरे में पड़ रही है. दूध कई भारतीयों, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, पोषण का एक सबसे खास स्रोत है. दूध उत्पादन में किसी भी प्रकार की बाधा से आपूर्ति में कमी और कीमतों में वृद्धि हो सकती है, जिससे सुरक्षित और पौष्टिक भोजन तक लोगों की पहुंच प्रभावित हो सकती है. खाद्य सुरक्षा के चार प्रमुख स्तंभों में से एक पोषण है, और दूध एक ऐसा खाद्य पदार्थ है जो लोगों को सक्रिय और स्वस्थ जीवन जीने के लिए आवश्यक आहार संबंधी जरूरतों और प्राथमिकताओं को पूरा करने में मदद करता है.
डेयरी जानवरों पर जलवायु परिवर्तन के सबसे तात्कालिक प्रभावों में से एक गर्मी का तनाव है. खासकर जब तापमान 25-30°C से अधिक हो जाता है. गायों और भैंसों को ऐसी परिस्थितियों में अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में कठिनाई होती है, जिसके नतीजन भोजन का सेवन कम हो जाता है, दूध की पैदावार घट जाती है और प्रजनन क्षमता कमजोर हो जाती है. उत्तरी और मध्य भारत जैसे क्षेत्रों में, जहां गर्मियों का तापमान 40°C से अधिक हो सकता है, इसके प्रभाव और भी गंभीर होते हैं. गर्मी के तनाव के कारण दूध उत्पादन में 10-30 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है. इसके अलावा, गायों के व्यवहार में परिवर्तन देखा जाता है, जैसे कि आराम करने का समय बढ़ना और चरना कम होना, जिससे भोजन का सेवन और कम हो जाता है. इसके अतिरिक्त, गर्मी के तनाव के कारण मद में देरी और मृत जन्म दर में वृद्धि भी देखी जाती है.
गर्मी का तनाव पशुओं की पाचन प्रणाली को कमजोर करता है, जिससे वे मास्टिटिस, श्वसन संक्रमण और खुरपका जैसे रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं. तनावग्रस्त जानवरों में संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है, जिससे पशु चिकित्सा उपचार की लागत बढ़ जाती है. इसके अतिरिक्त, बढ़ते तापमान और परिवर्तित वर्षा पैटर्न से खुरपका और नीली जीभ जैसे वेक्टर जनित रोग भी बढ़ते हैं.
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आईसीएआर की रिपोर्टों के अनुसार, गर्म क्षेत्रों में मच्छर और टिक गतिविधि में वृद्धि से इन रोगों का खतरा और बढ़ जाता है. पंजाब में हरे चारे की कमी 28.57 फीसदी तक पहुंच गई है. चारे की सुरक्षा में सुधार और जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए सुझाव में संतुलित भूमि उपयोग सुनिश्चित करने के लिए मौजूदा अनाज-प्रधान फसल प्रणालियों में चारा फसलों को एकीकृत करना आवश्यक है. किसानों को कमी की अवधि के लिए अधिशेष चारे के भंडारण के लिए साइलेज और हेमेकिंग जैसी तकनीकों पर शिक्षित करना अहम है. शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए अनुकूलित जलवायु-अनुकूल उच्च उपज वाली चारा फसलों का विकास और प्रचार करना चाहिए. पानी की कमी वाले क्षेत्रों में चारे की उत्पादकता बढ़ाने के लिए ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर सिस्टम जैसी जल-बचत तकनीकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.
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