भारत में गाय को बहुत ऊंचा स्थान मिला है. यहां गाय को गौमाता का दर्जा दिया गया है. गाय से निकलने वाली हर चीज़ को पवित्र माना जाता है और यहां तक कि पूजा में भी इसका उपयोग किया जाता है. इतना ही नहीं, पशुपालक गाय पालकर न केवल अपनी आय बढ़ा रहे हैं, बल्कि विभिन्न नस्लों की गायों का अलग-अलग तरीकों से उपयोग करके अपना जीवन यापन भी कर रहे हैं. आज के समय में गाय के दूध, दही, घी आदि की मांग बहुत ज्यादा है. जिसके कारण बाजार में दुधारू नस्ल की मांग हमेशा बनी रहती है. लेकिन गायों की कुछ नस्लें ऐसी भी हैं जो दूध देने के साथ-साथ भार वाहक के रूप में भी काम करती हैं.
ऐसे में पशुपालकों या किसानों को एक साथ दो फायदे मिलते हैं. दूध बेचकर पैसा कमाया जा सकता है. वहीं दूसरी ओर सामान ढोने का काम भी आसानी से और कम लागत में पूरा हो जाता है. ऐसे में आइये जानते हैं इन खास नस्लों के नाम और उनके बारे में.
गाय की नस्ल | जगह का नाम | काम |
बचौर | बिहार | भारवहन |
बारगुर | तमिलनाडु | भारवहन |
दगरी | गुजरात | भारवहन |
डांगी | महाराष्ट्र और गुजरात | भारवहन |
घुमसारी | ओड़िशा | भारवहन |
हल्लिकर | कर्नाटक | भारवहन |
कांगेयम | तमिलनाडु | भारवहन |
केंनकाथा | उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश | भारवहन |
खरियार | ओड़िशा | भारवहन |
खैरीगढ़ | उत्तर प्रदेश | भारवहन |
बचौर बिहार की एक भारवाहक पशु नस्ल है. जो बिहार की एकमात्र पंजीकृत पशु नस्ल है. बचौर नस्ल को 'भूटिया' के नाम से भी जाना जाता है. यह नस्ल हरियाणा नस्ल की गायों से काफी मिलती-जुलती है. जबकि बचौर नस्ल की गाय मुख्य रूप से बिहार के दरभंगा, सीतामढी और मधुबनी आदि जिलों में पाई जाती है. इस नस्ल के मवेशी कम चारे पर भी कुशलता से काम करते हैं. इसके अलावा, मवेशी आमतौर पर भूरे या सफेद रंग के होते हैं. सींग मध्यम आकार के और ठूंठदार होते हैं, जो बाहर की ओर, ऊपर की ओर और फिर नीचे की ओर मुड़ते हैं. जबकि बैल बिना किसी रुकावट के लंबे समय तक काम कर सकते हैं.
बारगुर गाय की ऐसी नस्ल है जो मुख्य रूप से तमिलनाडु के इरोड जिले की भवानी तहसील के बरगुर पहाड़ी क्षेत्र में पाई जाती है. इसका उपयोग मुख्य रूप से भरवाहक के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में किया जाता है. जहां अन्य गाय की नस्लें अनुपयोगी हो जाती हैं. इस नस्ल की गाय के शरीर पर सफेद रंग के धब्बे पाए जाते हैं, जबकि कुछ गायें सफेद और कुछ गहरे भूरे रंग की होती हैं. इन गायों का आकार छोटा और मध्यम, माथा ऊंचा और सींगों का रंग हल्का भूरा होता है. इन गायों की लम्बाई अच्छी होती है.
मध्य गुजरात के आदिवासी इलाके में पाई जाने वाली 'दगरी गाय' को राष्ट्रीय मान्यता मिल गई है. जिससे इसके जीन के संरक्षण और संरक्षण का मार्ग प्रशस्त हो गया है. गिर, कांकरेज और डांगी के बाद, दगरी गुजरात की गाय की चौथी स्वदेशी नस्ल है जिसे राष्ट्रीय पशु आनुवंशिक संसाधन ब्यूरो (एनबीएजीआर) से राष्ट्रीय मान्यता मिली है.
गुजरात के डांगी नस्ल के मवेशी डांग, महाराष्ट्र के ठाणे, नासिक, अहमदनगर और हरियाणा के करनाल और रोहतक के आसपास के इलाकों में पाया जाता है. डांगी नस्ल का नाम गुजरात राज्य के डांग क्षेत्र से लिया गया है, जो इस नस्ल का गृह क्षेत्र है. ऐसा माना जाता है कि यह नस्ल स्थानीय और गिर मवेशियों के बीच प्रजनन का परिणाम है. डांगी नस्ल का मवेशी मध्यम आकार का, तेजी से काम करने वाला पशु है. इस नस्ल के मवेशी काफी विनम्र और शक्तिशाली होते हैं. भारी बारिश की स्थिति में भी अच्छी तरह से खड़ा रहता है. बैलों का उपयोग सभी सामान्य कृषि कार्यों के लिए किया जाता है और घाट क्षेत्रों में धान की खेती और सड़क परिवहन के लिए बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है.
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