आधुनिक युग में, जहां हाई-टेक विद्यालयों का बोलबाला है, वहीं बिहार की राजधानी पटना से करीब 150 किलोमीटर उत्तर दिशा में गया जिले के बाराचट्टी प्रखंड के जंगलों के बीच बसा कोहवरी गांव एक अनूठा उदाहरण पेश कर रहा है.
यहां एक दंपत्ति, अनिल कुमार और उनकी पत्नी रेखा देवी, गुरुकुल संचालित कर रहे हैं. इस गुरुकुल में बच्चे प्रकृति की गोद में न केवल आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, बल्कि पेड़-पौधों, औषधीय खेती, और परंपरागत कृषि के गुर भी सीख रहे हैं.
दिल्ली से उच्च शिक्षा प्राप्त अनिल और रेखा पिछले एक दशक से अधिक समय से अपने दोनों बेटों के साथ इस जंगल में निवास कर रहे हैं. कभी इस कोहवरी गांव और आसपास के क्षेत्रों में नक्सलियों का पंचायत बैठता था, लेकिन आज यहां शिक्षा की पाठशाला चल रही है.
दिल्ली से लौटने के बाद उन्होंने जंगल के बीच रहने वाले बच्चों को प्रकृति का महत्व समझाने, औषधीय और परंपरागत खेती के प्रति रुचि जगाने और उनके जीवन में शिक्षा का दीप जलाने के उद्देश्य से 'सहोदय आश्रम सेवा' नाम से एक आश्रम शुरू किया, जो आज निरंतर प्रगति कर रहा है.
अनिल बताते हैं कि वर्तमान में उनके आश्रम में लगभग 30 बच्चे हैं. ये बच्चे शिक्षा के साथ-साथ खेती और प्रकृति के महत्व को समझ रहे हैं. यहाँ गाँव के गरीब बच्चों को पढ़ाई का तनाव नहीं, बल्कि हंसते-खेलते शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिलता है.
शिक्षा के बदले उन्हें कोई शुल्क नहीं, बल्कि अनाज दान में देना होता है. कोहवरी गांव के बच्चों के अलावा अन्य जिलों के बच्चे भी इस गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं. पढ़ाई के साथ-साथ बच्चे खुद सब्जियां और अन्य फसलें उगाते हैं. खरीफ के मौसम में बच्चों ने जैविक विधि से 18 कट्ठा जमीन पर धान की खेती भी की.
अनिल और रेखा न केवल बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं. उन्होंने आश्रम के आसपास और अन्य इलाकों में अब तक चार हजार से अधिक पेड़ लगाए हैं.
उनके इस प्रयास के लिए सरकार द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया जा चुका है. इसके अलावा, उन्होंने लगभग 100 प्रकार के परंपरागत सब्जियों, मोटे अनाज, और अन्य फसलों के बीजों का संग्रह किया है, जिससे परंपरागत कृषि को बढ़ावा मिल रहा है.
अनिल बताते हैं कि आश्रम का खर्च लोगों के सहयोग और खुद बनाए गए उत्पादों की बिक्री से चलता है. आश्रम में बाहरी वस्तुओं का उपयोग पूरी तरह प्रतिबंधित है. यहां बच्चे खुद खाना बनाने में एक-दूसरे की मदद करते हैं. यह आत्मनिर्भरता बच्चों में आत्मविश्वास और सामूहिकता का भाव पैदा करती है.