Success Story: किसान का शॉर्टकट आइडिया, 10 साल का इंतज़ार खत्म, अब एक ही साल में सेब की 3 गुना पैदावार!

Success Story: किसान का शॉर्टकट आइडिया, 10 साल का इंतज़ार खत्म, अब एक ही साल में सेब की 3 गुना पैदावार!

सेब की खेती करने वाले किसानों के लिए अब बरसों का इंतज़ार बीते ज़माने की बात हो गई है. एक नए और क्रांतिकारी शॉर्टकट आइडिया ने खेती का अंदाज़ ही बदल दिया है. जहां पहले सेब के बाग तैयार होने और भरपूर फसल देने में 10 साल लग जाते थे, वहीं अब इनोवेटिव आइडिया की मदद से एक किसान मात्र 1 साल में ही 3 गुना ज़्यादा पैदावार ले रहा हैं. यह 'फार्मर सीक्रेट' न केवल समय बचा रहा है, बल्कि लागत कम करके मुनाफे को आसमान पर पहुंचा रहा है.

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जेपी स‍िंह
  • नई दिल्ली,
  • Dec 21, 2025,
  • Updated Dec 21, 2025, 6:50 PM IST

हिमाचल प्रदेश और अन्य पहाड़ी राज्यों में सेब की खेती करने वाले किसान सालों से एक गंभीर समस्या का सामना कर रहे हैं, जिसे 'पॉलिनेशन' या परागण की कमी कहा जाता है. असल में, कई पुराने बागों में मुख्य फसल के पेड़ तो भरपूर हैं, लेकिन उन्हें फल में बदलने के लिए जिस 'पॉलिनाइजर' (पराग देने वाली किस्म) की जरूरत होती है, उनकी बहुत कमी है. नतीजा यह होता है कि बसंत में पेड़ों पर फूल तो खूब लदते हैं, मगर वे फल में नहीं बदल पाते और झड़ जाते हैं. इस मुश्किल को दूर करने का पारंपरिक तरीका यह था कि बाग में नए परागण वाले पेड़ लगाए जाएं, लेकिन एक नए पौधे को बड़ा होकर फल देने लायक बनने में 8 से 10 साल का लंबा समय लग जाता है. इतने सालों तक इंतजार करना किसी भी किसान के लिए आर्थिक रूप से बहुत भारी पड़ता है. इसी चुनौती को स्वीकार किया प्रगतिशील किसान बी.एस. ठाकुर ने. अपने 55 वर्षों के लंबे अनुभव के आधार पर उन्होंने एक ऐसा रास्ता निकाला जिससे पुराने पेड़ों को काटने की ज़रूरत भी नहीं पड़ी और पैदावार भी तीन गुना बढ़ गई.

10 साल का इंतज़ार खत्म, 1 साल में भरपूर फल

ज्यादातर बागवानों के सामने यह दिक्कत आती है कि उनके बाग में परागण सही से नहीं हो पाता, क्योंकि सही किस्म के पराग देने वाले पेड़ नहीं होते. बीएस ठाकुर ने इसके लिए 'क्लेफ्ट ग्राफ्टिंग' यानी 'कलम लगाने' की तकनीक का इस्तेमाल किया. उन्होंने मुख्य पेड़ को उखाड़ने के बजाय, उसी पेड़ की टहनियों पर पराग देने वाली किस्मों की कलम चढ़ा दी. इससे यह फायदा हुआ कि किसान को नए पेड़ उगाने के लिए 10 साल का इंतजार नहीं करना पड़ा और पुराने पेड़ पर ही नई किस्म की टहनियां तैयार हो गईं. उनकी इस सूझबूझ भरी तकनीक ने 10 साल के लंबे इंतज़ार को खत्म कर दिया और बागों में फलों की संख्या जादुई तरीके से बढ़ गई. यह तकनीक आज पहाड़ी किसानों के लिए कम लागत में अधिक मुनाफ़ा कमाने का एक बेहतरीन ज़रिया बन गई है.

लागत कम, पैदावार तीन गुना ज़्यादा

इस तकनीक का सबसे हैरान करने वाला नतीजा इसके उत्पादन में दिखा. जहां पहले प्रति हेक्टेयर केवल 5 से 6 टन सेब की पैदावार हो रही थी, इस तकनीक के बाद वह बढ़कर 16 से 17 टन तक पहुंच गई. सबसे अच्छी बात यह है कि इसमें कोई भारी भरकम खर्चा या मशीनों की जरूरत नहीं पड़ी. वसंत ऋतु के दौरान एक ही पेड़ पर 3 से 4 अलग-अलग किस्मों की परागण वाली कलमें लगाकर बाग की उर्वरता को बढ़ा दिया गया, जिससे फलों का आकार और संख्या दोनों बेहतर हो गए.

कैंकर बीमारी से बचने का देसी जुगाड़

सेब कलम लगाने में सबसे बड़ा डर 'कैंकर'  नाम की बीमारी का होता है, जो कटे हुए हिस्से पर घाव बनने से फैलती है. बीएस ठाकुर ने यहां अपनी समझदारी का परिचय देते हुए एक अनोखा तरीका अपनाया. उन्होंने कलम लगाते समय जो बड़े कट लगाए थे, उन्हें उसी पेड़ की छाल से ढक दिया. इस प्राकृतिक ड्रेसिंग की वजह से घाव जल्दी भर गए और कोई बीमारी नहीं फैली. यह तकनीक इतनी सफल रही कि ग्राफ्ट की हुई टहनियां बहुत जल्दी मजबूत हो गईं और सूखने का खतरा खत्म हो गया.

खेती का नया क्रांतिकारी आइडिया! 

बी.एस. ठाकुर की यह तकनीक आज के समय में हर सेब की खेती करने वाले किसान के लिए बेहद लाभकारी है, जो कम समय में अपने सेब के पुराने बागों को सुधारना चाहता है. यह तरीका बहुत ही आसान है और कोई भी किसान इसे थोड़ी सी ट्रेनिंग के साथ अपने खेत में लागू कर सकता है. इससे न केवल बागों की रौनक बढ़ती है, बल्कि किसानों की आमदनी भी तीन गुना तक बढ़ सकती है. एक साधारण 'मैट्रिक' पास किसान के इस नवाचार ने साबित कर दिया कि खेती में किताबी ज्ञान से कहीं ज्यादा अनुभव और नया सोचने की शक्ति काम आती है.

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