तसर की खेती आम तौर पर जंगली इलाकों में कि जाती है. जहां पर किसानों के पास सामान्य कृषि करने के लिए बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता है. उनके लिए बाजार दूर होते हैं. कृषि इनपुट खरीदना आसान नहीं होता है. जमीन समतल और खेती के लायक नहीं रहती है. जंगली जानवरों का खतरा बना रहता है. सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होती है. ऐसे में तसर की खेती उन क्षेत्रों में रहने वाले किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है.
इसमें तसर अनुसंधान केंद्र की भूमिका भी सराहनीय है. इस क्षेत्र में तसर की खेती को बढ़ावा इसलिए मिल रहा है क्योंकि यहां पर आसन के पेड़ बहुतायत में पाए जाते हैं. तसर उत्पादन के जरिए चक्रधरपुर अनुमंडल के कुरजुली और आस-पास के गांवों के किसान सफलता की कहानी लिख रहे हैं. चक्रधरपुर स्थित तसर बीज उत्पादन केंद्र के वैज्ञानिक डॉ तपेन्द्र सैनी ने बताया कि जब से इस क्षेत्र में तसर के लिए बीज उत्पादन और कमर्शियल ककून का उत्पादन शुरू हुआ है, यहां के लोगों की जिंदगी बदल गई है.
सबसे बड़ा बदलाव आया है कि इस संपूर्ण आदिवासी क्षेत्र से अब पलायन पूरी तरह रुक गया है. केंद्र से जुड़े गांव गांवों के 200 लोग अब पैसा कमाने के लिए पलायन नहीं करते हैं. तपेन्द्र सैनी ने बताया कि इसकी शुरुआत सिर्फ पांच किसानों से हुई थी. सबसे पहले पांच किसान तसर उत्पादन से जुड़े थे. उसके बाद आज पांच गांवों के 200 से अधिक किसान उनके साथ काम कर रहे हैं. इस सभी किसानों को पहले तसर की खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया.
इसके बाद किसानों को उससे संबंधित ट्रेनिंग दी गई. फिर किसान इसकी खेती कर रहे हैं. इसके अलावा भी किसान दूसरी अन्य सब्जियों और फसलों की भी खेती कर रहे हैं इससे उनकी कमाई बढ़ी है. तसर की खेती से होने वाली कमाई की बात करें तो एक किसान इसकी खेती करके 43-45 दिनों में 50-60 हजार रुपये की औसत कमाई कर लेता है. मछुआ पूर्ति नाम के एक किसान ने पिछले साल एक लाख 31 हजार रुपए की कमाई की थी.
उन्हें सरायकेला में आयोजित किसान मेला में तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने सम्मानित किया था. तपेंन्द्र ने बताया कि मछुआ पूर्ति की जिंदगी में बहुत बदलाव आया है. पहले वो काम करने के लिए बाहर जाते थे और थोड़ा बहुत खेती करते थे. उनका जीवन गरीबी में बीत रहा था, पर तसर की खेती करने के बाद उन्होंने पक्का मकान बना लिया है और फिर खुद की बाइक भी खरीद ली है. बैंक में कुछ पैसे भी जमा कर लिए हैं.
किसानों को खेती करने के लिए कुकून के सीजन में 100-200 रोग मुक्त अंडे दिए जाते हैं. एक अंडे की कीमत 16 रुपये होती है. इस तरह से किसानों को सिर्फ पूंजी के तौर पर यही राशि खर्च होती है. इसके बाद सिर्फ किसानों को मेहनत करनी पड़ती है. डीएफएल को चिड़ियों और चीटियों से बचाना होता है. इसके बाद जब वे बड़े हो जाते हैं तो फिर उन्हें दूसरे पेड़ में ट्रांसफर करना होता है. पेड़ के नीचे भी खरपतवार को अच्छे तरीके से साफ करना पड़ता है.
इसके बाद सीड और कमर्शियल ककून तैयार हो जाता है. एक सीड की कीमत 2.90 पैसे और कमर्शियल कुकून की कीमत 5.60 पैसे मिलते हैं. यह रेड सरकार द्वारा हर साल तय किया जाता है. एक रोग मुक्त लार्वा से 50-60 सीड बन जाते हैं. हालांकि इस क्षेत्र के किसान 70-80 बीज तक की पैदावार हासिल करते हैं. एक साल में किसान इसकी दो फसल ले सकते हैं , इससे उनकी कमाई अच्छी हो जाती है.