‘ओरण उपजै औषधि, ओरण लाभ अनेक,
ओरण बचावण आवसक, निश्चै कारज नैक.’
यानी ओरण के अंदर कई प्रकार की औषधियां पैदा होती हैं. ओरण के अनेक लाभ हैं. ओरण को बचाना आवश्यक है और निश्चित रूप से यह एक नेक कार्य है. बाड़मेर में रहने वाले कवि दीप सिंह भाटी ने ओरण यानी संरक्षित जंगल और चारागाहों का महत्व बताने के लिए 23 साल पहले ऐसे 31 दोहे लिखे. जिनमें ओरणों के महत्व और उनकी जीवन के लिए प्रासंगिकता के बारे में बताया गया है.
ये दोहे आज भी स्थानीय लोगों के बीच काफी मशहूर है. इससे दिखता है कि पश्चिमी राजस्थान के लोगों के लिए ओरण का क्या महत्व है? क्यों ये लोग ओरण को अपने अस्तित्व से जोड़ कर देखते हैं?
जैसलमेर में रहने वाले पर्यावरणविद् और थार को समझने वाले पार्थ जगाणी कहते हैं, “रेगिस्तान की जरूरत पानी और चारे की थी. इसीलिए हमारे बुजुर्गों ने तालाब बनाए. बेरी बनाईं और पशुओं के चरने के लिए ओरण यानी एक जंगलनुमा चारागाह विकसित किए. इन ओरणों में इंसान को पेड़ों के पत्ते तक तोड़ने की इजाज़त नहीं है. पेड़ों से टूटकर गिरे फल और लकड़ियों को ही लोग अपने काम में ले सकते हैं. किसी भी जानवर का शिकार नहीं किया जाएगा. बुजुर्गों इन ओरणों को किसी ना किसी स्थानीय लोक देवता के साथ जोड़ा गया ताकि इनका संरक्षण हो सके. इसीलिए जैसलमेर सहित पूरे पश्चिमी राजस्थान में ओरण संरक्षण धार्मिक, सामाजिक मान्यता-नियम के साथ-साथ अध्यात्मिक कर्तव्य के रूप में देखा जाता है. यही वजह है कि आज भी पश्चिमी राजस्थान के जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर और जोधपुर में बड़ी संख्या में ओरण बचे हुए हैं.”
पार्थ जोड़ते हैं, “दरअसल, राजस्थान के पश्चिम में सिर्फ रेगिस्तान है, ऐसा फिल्मों, गीत, लोकगीतों कई माध्यमों से लंबे वक्त से प्रचारित किया गया है. यह सच है, लेकिन इसी भुरभुरी रेत में यहां के लोगों ने जीवन को मुठ्ठियों से फिसलने नहीं दिया. इसीलिए थार रेगिस्तान दुनिया के वाहिद रेगिस्तानों में से एक है, जहां जीवन है. क्योंकि यहां के लोगों ने पानी की कमी के बावजूद तालाब बनाए. मवेशियों के चरने के लिए ओरण (चारागाह) विकसित किए और रेगिस्तान में भी जीवन को जीवंत कर दिया.”
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देश 47 में आजाद हुआ. जैसलमेर में ओरण बचाओ समिति के सचिव दुर्जन सिंह किसान तक को इस संघर्ष की जड़ तक ले जाते हैं. बताते हैं, “आजादी के बाद जमीनों की पैमाइश हुई तो ओरणों की जमीन सिवायचक यानी सरकारी जमीन के रूप में दर्ज हो गईं. जागरूकता के अभाव में ग्रामीण इस बात की गंभीरता को नहीं समझ पाए कि बाद में यही समस्या की जड़ बनेगा. 2000 के दशक में यहां सोलर कंपनियों को जमीन अलॉट होने लगीं. ओरण की जमीनों पर सोलर प्लांट खड़े होने लगे तो पता चला कि अधिकतर ओरण राजस्व भूमि में दर्ज नहीं हैं. जो हैं, उनकी पूरी जमीन ओरण के रूप में नहीं दिखाई गई है. इसीलिए 2010 के बाद से इस क्षेत्र में संघर्ष बढ़ा है.”
पार्थ कहते हैं, “हमारा संघर्ष दोतरफा है. पहला सोलर प्लांटों से ओरणों को बचाने के अलावा ओरणों को राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज कराना है. दूसरा पारंपरिक है. समस्या है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में हमारे लोगों में ओरणों का महत्व और उनकी समझ कम हुई है. जो रिश्ता हमारे बुजुर्गों का इन ओरणों के साथ था, वह इस पीढ़ी के साथ नहीं है. इसीलिए ओरणों की जमीन पर बनते सोलर प्लांट का विरोध बहुत सीमित लोगों ने किया.”
पार्थ कहते हैं, “राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज कराने का एक लंबी प्रक्रिया और संघर्ष है. इसीलिए हमने युवाओं को ध्यान में रखते हुए ओरण जागरूकता कार्यक्रम शुरू किए हैं. बीते चार साल में इस छोटी शुरूआत ने बड़ा फलक बना लिया है. अब तक ओरण बचाओ अभियान के तहत हजारों लोग 800 किमी पदयात्रा कर चुके हैं. आसपास के 150 से अधिक गांवों में ओरण बचाओ यात्राएं निकाली जा चुकी हैं. ओरणों में वृक्षारोपण कार्यक्रम शुरू किए गए हैं.
इसके साथ ही 12 ओरण परिक्रमाएं की गई हैं. इनमें तीन बार देगराय ओरण, डुंगरपीर ओरण, आला जी ओरण, तनोटिया ओरण दिधू, तनोटिया ओरण बिंजोता, मेहरेरी ओरण, करियाप ओरण, भादरिया ओरण, नागाणा ओरण, सोहड़ा जी ओरण शामिल हैं. इसके अलावा एक हफ्ते की ओरण पद यात्रा जोकि 292 किमी की थी. इसमें 40 गांवों में ओरणों के प्रति जागरूकता फैलाई गई थी. साथ ही पांच बार जिला कलेक्ट्रेट तक ओरण पदयात्रा जिसमें विभिन्न ओरणों को राजस्व में दर्ज करने और उन्हें संरक्षित रखने के लिए कलेक्टर को ज्ञापन दिए गए हैं.
इन्हीं कोशिशों में 80 गांवो में वृक्षारोपण अभियान चलाकर ओरणों और देसी वृक्षों के प्रति जागरूकता बढ़ाई गई है. एक बार भादरिया ओरण की आरती भी की गई है. वहीं 27 जून को जोधपुर के कोलू ओरण को बचाने के लिए 25 किमी की वाहनों से परिक्रमा की गई और आरती का आयोजन हुआ. आरती के दौरान 101 साल पुराने नीम के पेड़ पर मोली बांधी गई और ओरण संरक्षण का वचन लिया गया. जानवरों के महत्व को ध्यान में रखते हुए 10-10 घोड़े और ऊंट को भी 25 किमी की परिक्रमा में शामिल किया गया.”
इसके अलावा ओरणों आरती के कार्यक्रम भी कई ओरणों में किए गए हैं. इनमें जैसलमेर के भादरिया ओरण आरती पिछले दिनों की गई. 27 जून को ही जोधपुर के कोलू ओरण को बचाने के लिए 25 किमी की वाहनों से परिक्रमा की गई और आरती का आयोजन हुआ. आरती के दौरान 101 साल पुराने नीम के पेड़ पर मोली बांधी गई और ओरण संरक्षण का वचन लिया गया. जानवरों के महत्व को ध्यान में रखते हुए 10-10 घोड़े और ऊंट को भी 25 किमी की परिक्रमा में शामिल किया गया.”
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ओरण बचाने में संघर्ष कर रहे सांवता गांव के सुमेर सिंह कहते हैं, “इन कार्यक्रमों से आम लोगों में ओरणों के प्रति संवेदनशीलता आई है. वे इनके महत्व और जरूरत को समझ रहे हैं. इसीलिए अब बड़ी संख्या में युवा आरती, परिक्रमा वाले कार्यक्रमों में शामिल हो रहे हैं. इसके अलावा कानूनी लड़ाई तो लड़ी ही जा रही है.”
पार्थ अंत में कहते हैं, “प्रकृति और इंसान का मानव सभ्यता की शुरूआत से ही संबंध रहा है. इसी संबंध को हम जोड़ने की कोशिश फिर से कर रहे हैं. अगर ओरण बचेंगे तो हमारा अस्तित्व भी बचा रहेगा और इतिहास भी. रेगिस्तान के पारिस्थितिकी और इंसानी ‘विकास’ के बीच एक बैलेंस की जरूरत है. हमारी अर्थव्यवस्था पशुपालन पर टिकी हुई है. अगर यही खत्म हो गया तो सोलर प्लांट्स कितने लोगों को रोजगार दे पाएंगे?”
पार्थ जोड़ते हैं. प्रकृति और रेगिस्तान के लोगों के बीच संबंध बहुत ही अटूट और भावुक कर देने वाला है. यहां के लोकगीतों से यह प्रेम और संबंध साफ दिखाई देता है. इतना ही नहीं बेटी जब विदा होती है तो पौधों को अपनी बहन बताते हुए कहती है, ‘माता म्हारी रे! अरणकी रे लागा आछीयोड़ा मां फूल, ऐ फूलड़ा, अरे मां फूलड़ा म्हारा राज’
इस गीत के अर्थ में इस संघर्ष के समाधान का मर्म छिपा है. जिसमें ब्याह के बाद बेटी अपनी विदाई के वक्त रोते हुए मां से कहती है- हे मां, आज मैं खुद की रोपी और सींची अरणी (एक आयुर्वेदिक खुशबूदार पौधा) बहिन से बिछड़ रही हूं. इस अरणी के पौधे पर पुष्पित, पल्लवित फूल मुझे बहुत याद आएंगे. मेरी मां, तुम इस हरीभरी अरणी की रक्षा करना.