भारत में गन्ना एक मुख्य फसल है, जिसकी खेती लगभग 60 लाख हेक्टेयर में की जाती है. इसकी खेती में 10 से 15 महीने का लंबा समय लगता है. इस वजह से किसानों को साल में सिर्फ एक बार आमदनी होती है, जिससे उन्हें अक्सर आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ता है. इस समस्या के समाधान के लिए ICAR-भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान ने एक बहुत ही लाभकारी तरीका विकसित किया है, जिसे 'गन्ना + मक्का सहफसली खेती' कहते हैं. इस प्रणाली का दोहरा लक्ष्य है- किसानों का मुनाफा बढ़ाना और देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए इथेनॉल का उत्पादन तेज करना.
यह मॉडल सभी के लिए फायदेमंद है. वैज्ञानिकों का मानना है कि भारत की लगभग 15 लाख हेक्टेयर गन्ना भूमि पर इसे आसानी से अपनाया जा सकता है. अगर ऐसा होता है, तो देश में हर साल 40 से 60 लाख टन अतिरिक्त मक्का पैदा होगा. इससे न केवल किसानों की आय बढ़ती है, बल्कि यह भारत के इथेनॉल कार्यक्रम को भी मजबूत करता है और देश की भोजन और ऊर्जा सुरक्षा को भी सुनिश्चित करता है.
भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. शंकर लाल जाट के अनुसार, गन्ना-मक्का सहफसली खेती किसानों के लिए बहुत लाभकारी है क्योंकि मक्के की फसल सिर्फ 100 दिनों में तैयार हो जाती है. मक्का किसी भी तरह की जलवायु और मिट्टी में आसानी से उग सकता है और इसकी खेती का तरीका भी गन्ने से काफी मिलता-जुलता है, जिससे किसानों को अलग से मेहनत नहीं करनी पड़ती.
इस वैज्ञानिक तकनीक में गन्ने को नालियों में और मेड़ों पर मक्के को बोया जाता है, जिसके लिए प्रति एकड़ सिर्फ 5 से 6 किलो बीज लगता है. यह प्रणाली गन्ने की शुरुआती धीमी बढ़वार का फायदा उठाती है. जब तक गन्ने के पौधे छोटे होते हैं, कतारों के बीच की खाली जगह में मक्के की फसल पककर तैयार हो जाती है. इस तरह किसान लगभग उतने ही पानी, खाद और मेहनत में एक ही खेत से दो फसलों का लाभ ले सकते हैं.
डॉ. जाट के अनुसार, यह तकनीक उत्तर भारत में बसंतकालीन गन्ने के साथ बेहद सफल है, जबकि दक्षिण भारत में इसे किसी भी मौसम में बोए जाने वाले गन्ने के साथ अपनाया जा सकता है. उन्होंने यह भी बताया कि अब उत्तर भारत में शरदकालीन गन्ने के साथ भुट्टे वाली मक्का और बेबीकॉर्न की सहफसली खेती का भी परीक्षण किया जा रहा है.
गन्ना-मक्का सहफसली खेती में सफलता पाने के लिए वैज्ञानिक विधि अपनाना बेहद जरूरी है. इस तकनीक में, खेत में मक्के के पौधों की संख्या 33% से 50% तक ही रखी जाती है, ताकि गन्ने के पौधों को बढ़ने के लिए पूरी धूप, जगह और पोषण मिले. मक्के के लिए 80-100 दिन में पकने वाली हाइब्रिड किस्में सबसे अच्छी होती हैं, जिनका पौधा सीधा बढ़ता है. बुवाई के लिए नाली (Trench) विधि का प्रयोग करें. इसमें गन्ने की कतारों के बीच 4 से 5 फीट की दूरी रखें और बीच की उठी हुई मेड़ पर मक्के की एक या दो पंक्तियां लगाएं.
डीटॉपिंग तकनीक इस प्रणाली का सबसे अहम हिस्सा है. जब मक्के के भुट्टे पर भूरे रंग के रेशे आ जाते हैं, तो पौधे के ऊपरी हिस्से को काट दिया जाता है. इस प्रक्रिया को डीटॉपिंग कहते हैं. इसके तीन बड़े फायदे होते हैं. गन्ने के पौधों पर सीधी धूप पड़ने लगती है, जिससे वे तेजी से बढ़ते हैं और उनमें रस की मात्रा बढ़ती है. कटे हुए ऊपरी हिस्से का उपयोग पशुओं के लिए पौष्टिक हरे चारे के रूप में किया जाता है. भुट्टे पौधे पर ही लगे-लगे खेत में ही सूखने लगते हैं, जिससे मक्के के दानों की गुणवत्ता बेहतर होती है और उन्हें अलग से सुखाने का खर्च बच जाता है.
गन्ना-मक्का सहफसली खेती से किसानों को सीधा आर्थिक लाभ मिलता है. उन्हें प्रति एकड़ 2 टन अतिरिक्त मक्के की पैदावार मिलती है, जिससे उनकी शुद्ध आय में 20 से 25 हजार रुपये तक की बढ़ोतरी होती है. सबसे बड़ी बात यह है कि अलग से मक्का उगाने की तुलना में इस विधि में खेती की लागत 75% तक कम हो जाती है.
किसानों के इस फायदे के अलावा, इस मॉडल के लाभ और भी व्यापक हैं. एक ही खेत में लगभग उतने ही पानी और खाद में दो फसलें उगने से संसाधनों की बचत होती है. सहफसली खेती से मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है. साथ ही, यह प्रणाली इथेनॉल बनाने वाली फैक्ट्रियों को साल भर मक्के की आपूर्ति सुनिश्चित करती है, जिससे देश की ऊर्जा सुरक्षा को भी मजबूती मिलती है.