Independence Day Special: विंस्टन चर्चिल भारत पर शासन करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे. एक बार ब्रिटिश संसद में भारत की आजादी पर बहस के दौरान भारत को स्वतंत्र होने से रोकने की पूरी कोशिश की. जब वे इसमें सफल नहीं हुए तो उन्होंने कहा कि अगर भारत आजाद हुआ तो सत्ता गुंडों और मुफ्तखोरों के हाथ में चली जाएगी. एक बार तो कहा था कि ब्रिटिश साम्राज्य इतना शक्तिहीन नहीं हुआ है कि वह भूखे, नंगे भारतीयों को कुचल न सके. यानी भारतीयों को भूखे, नंगे कहते थे. आजादी के बाद चर्चिल ने एक राष्ट्र के रूप में भारतीयों की क्षमता पर सवाल उठाना शुरू कर दिया. आजादी के पहले 1943-44 में बंगाल में भयानक अकाल पड़ा जिसमें भूख के कारण करीब 30 लाख लोगों की जान चली गई. इसके लिए मुख्य रूप से उस समय के प्रधानमंत्री चर्चिल जिम्मेदार थे. लेकिन उन्होंने बचाव में बयान दिया कि भारतीयों की प्रजजन दर खरगोश की तरह है. यानी जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. और देश में खाद्य उत्पादन कम है, इसलिए इतनी अधिक मौतें हुईं. और इन 75 वर्षों में किसानों ने अपने सामर्थ्य से बता दिया है उनकी सोच गलत थी. आज दुनिया की सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश भी भारत है और कृषि निर्यात में भी यह विश्व के शीर्ष 10 देशों में शामिल है.
आज़ादी के बाद बहुत कुछ बदला. कभी अनाजों का आयात करने को मजबूर हमारे देश का भंडार आज इतना भरा है कि भारत में जहां खाद्यान्न उत्पादन 1950 में कुल उत्पादन छह करोड़ टन था. उत्पादकता बहुत कम पांच से छह क्विंटल प्रति हेक्टेयर थी. देश की आबादी का पेट भरने के लिए हमें जरूरी खाद्यान्नों के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ता था. जबकि आज के समय में 32 करोड़ टन से ज्यादा खाद्यान्न उत्पादन करके अपने देश के लोगों का पेट भरने साथ दूसरे देशों में बड़ी मात्रा में निर्यात कर रहे हैं.
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दुनिया में कोरोना महामारी संकट से उत्पन्न हालात के बीच किसानों द्वारा अतिरिक्त आनाज उत्पादन के कारण ही कोराना महामारी के दौरान 80 करोड़ लोगों को सरकार मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध करा पाई. वह भी उस समय जब दुनिया कई हिस्से खाने की कमी से जुझ रहे थे. करोड़ों लोगों की खाद्यान्न संबंधी जरूरतों को पूरा करने और अर्थव्यवस्था की स्थिति को सुधारने में कृषि क्षेत्र और किसानों भूमिका इससे स्पष्ट होती है. इससे स्पष्ट होता है कि बंगाल सूखे के लाखों मौतों के जिम्मेदार चर्चिल कितने गलत थे क्योंकि संकटों के समय कृषि और किसान ही किसी संकट में इस देश को संभाल सकते हैं.
जब सत्ता की बागडोर देशवासियों के हाथ आई थी, तो हमारी महत्वाकांक्षांएं हिलारें मार रही थीं. हमारे अपने नीति नियंताओं, कृषि वैज्ञानिको ने उद्योग और कृषि की तरक्की के लिए कई स्तरों पर जोर लगाया और हमारे किसानों ने उसे जमीन पर उतार कर सफल कर दिखाया. किसानों ने अपने खून-पसीने से, अपनी ताकत-बुद्धि से वो कर दिखाया, जिसकी कल्पना से आपको रोमांच हो जाएगा.
एक अलग लंबी कहानी है, एक लंबा सिलसिला है, जिसे देश के अन्नदाता ने साकार किया है. उन्हें समझने की कोशिश करें, तो अन्न अनाज के लिए हरित क्रांति, दूध के लिए श्वेत क्रांति, मछलियों के लिए नीली क्रांति, बागवानी के लिए गोल्डन क्रांति, फर्टिलाइजर के लिए ग्रे रिवॉल्यूशन, आलू के लिए राउंड रिवॉल्यूशन, अंडा के लिए सिल्वर रिवॉल्यूशन और ऐसी कई क्रांति हमारे इसी आज़ाद देश के इतिहास में कई गौरवशाली पन्ने जोड़ती चली गई.
इन सब क्रांतियों का असर देश की समृद्धि और हमारे लोगों के बढ़े जीवनस्तर के रूप में सबको खुशहाली से भर गया. लेकिन इसी के साथ कुछ गंभीर सवाल भी चस्पा हैं. जैसे ये कि देश-समाज की समृद्धि में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले किसानों को आखिर क्या मिला? हमने, हमारे सिस्टम ने, उन्हें क्या दिया? एक दौर था जब कहा जाता था कि हमारा देश गांवों में बसता है. इसके कुछ मायने थे, लेकिन बढ़ती संचार क्रांति और उपभोक्तावादी संस्कृति ने, गांव और शहरों का फासला बहुत कम कर दिया है. इससे किसान सीधे प्रभावित हुए.
इन बदलावों के बीच उनके लिए बहुत कुछ बेहतर हुआ. तेज गति से हो रही तकनीकी तरक्की, रिसर्च, ज्ञान-जानकारी के विस्तार और मौसम के बहुत हद तक सटीक आकलन ने किसानों को नए सांचे में ढलने की राह दिखाई और बहुत कुछ ऐसा भी हुआ, जिसने उनके जीवन के फलसफे पर बुरा असर डाला. ज्यादातर किसानों की आर्थिक हालत, समाज के अन्य लोगों के बढ़ रहे जीवनस्तर के साथ, तालमेल बनाने की स्थिति में नहीं रह सके.
दरअसल जैव-विविधता से भरे हमारे देश के संस्कारों में पुराण-उपनिषदों के ज्ञान का असर गहरा है. हमारे उपनिषद भी अन्नं बहु-कुर्विता यानी खूब अन्न उत्पन्न कर खुशहाल बनने का संदेश देते हैं. फिर भी ऐसे देश में लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हों, अन्नदाता आत्महत्या के लिए मजबूर होता हो, तो ये कहीं ना कहीं हमारी नीति, हमारी दिशा को लेकर एक चेतावनी है.
आज कई चुनौतियां सामने हैं. आज समूचा देश मिलावटी खाद्यान्न और खतरनाक रसायनों की चपेट में आ रहा है. परिणाम ये कि कई गंभीर बीमारियों की जकड़न दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. खतरनाक रसायनों को कम करने के लिए जैविक खेती पर जोर दिया जाने लगा है. इतना खाद्यान्न उत्पादन के बाद क्या देश के सभी लोगों को पौष्टिक भोजन मिल रहा है? अभी कई पहलू हैं जिन पर गंभीरता से काम करने की जररूत है. इसलिए तमाम तरह की राजनीति से दूर, पहले खेती के तकनीकी पहलू पर ज्यादा ध्यान देना होगा.
किसान तक का मानना है कि किसान तकनीकों से लैस हों, उन्हें हर ऐसी नई जानकारी मिले जिससे वे अपने काम में और ज्यादा काबिल हो सकें. उन्हें कम लागत में बेहतर उपज मिल सके, मौसम और कीट-रोगों के बुरे प्रभाव से वे अपनी फसलों को बचा सकें. खेती में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कैसे कम कर सकें, बहुफसली खेती करें, खेती के साथ जुड़ें. दूसरे व्यवसाय अपनाएं. हाईटेक फार्मिंग करें, एकीकृत खेती अपनाएं. सरकार द्वारा कृषि की बन रही नीतियों पर नजर रखें और अपने उत्पाद का सही दाम मिले इसके लिए देश से लेकर विदेशी मंडियों तक की जानकारी रखें. इसके साथ कृषि वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण राय जानकर लाभ उठाएं. सफल प्रगतिशील किसानों के अनुभव से भी अपने ज्ञान का दायरा बढ़ाएं.
आपका अतीत कैसा रहा? ये एक सबक के तौर पर और प्रेरणा के लिए जरूरी तो है. लेकिन भविष्य की बुनियाद, वर्तमान है. आज खेती किसानी के लिए, किसानों के कल्याण के लिए, हम क्या कुछ कर पा रहे हैं? उनसे हमें समस्याएं दूर करने के लिए आगे तरक्की करने में क्या और कितनी मदद हो पाएगी? इस पर नजर रखना भी बेहद जरूरी है.
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ये बात सही है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य हम हासिल कर पाएं या नहीं, इसको लेकर संदेह हो सकता है. लेकिन इतना तो तय है कि ऐसे लक्ष्य ने कम से कम इस दिशा में गंभीरता से सोचने की शुरुआत तो कर ही दी है. इसके चलते अब किसानों से जुड़े सभी मुद्दों पर मंथन चल रहा है. आज स्वतंत्रता दिवस के मौके पर हम अपने तमाम अतीत से सबक लेते हुए एक नई सुबह की आशा तो कर ही सकते हैं.