कपास की प्रजाति 'गॉसिपियम आर्बोरियम' पर पत्ती मोड़ने वाले वायरस रोग का असर नहीं होता है, इसलिए सरकार इस किस्म की खेती को बढ़ावा दे रही है. कपास की यह ऐसी किस्म है जो तना से रस चूसने वाले कीटों (सफ़ेद मक्खी, थ्रिप्स और जैसिड्स) और बीमारियों (बैक्टीरियल ब्लाइट और अल्टरनेरिया रोग) के प्रति सहनशील है. लेकिन इस प्रजाति पर ग्रे फफूंदी रोग का खतरा रहता है. देसी कपास की प्रजातियां नमी की कमी में भी सहनशीलता दिखाती हैं.
देश के विभिन्न कपास उत्पादक क्षेत्रों/राज्यों में व्यावसायिक खेती के लिए जारी की गई 77 जी आर्बोरियम कपास किस्मों में से, वसंतराव नाइक मराठवाड़ा के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित चार लंबी रोएंदार किस्में - पीए 740, पीए 810, पीए 812 और पीए 837 हैं.
कृषि विद्यापीठ (वीएनएमकेवी), परभणी (महाराष्ट्र) में विकसित की गई कपास की स्टेपल लंबाई 28-31 मिमी है और बाकी 73 किस्मों की मुख्य लंबाई 16-28 मिमी की सीमा में है. वीएनएमकेवी, आईसीएआर-ऑल इंडिया कॉटन रिसर्च प्रोजेक्ट ऑन कॉटन के परभणी केंद्र ने आईसीएआर-सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च ऑन कॉटन टेक्नोलॉजी, नागपुर केंद्र में ऊपरी आधी औसत लंबाई, जिनिंग आउट टर्न, माइक्रोनेयर वैल्यू सहित कताई परीक्षणों के लिए देसी कपास की किस्मों का परीक्षण किया है. इन किस्मों के रेशों ने कताई परीक्षण पास कर लिया है.
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देसी कपास स्टेपल फाइबर की लंबाई बढ़ाने के लिए रिसर्च जारी है. 2022-23 के दौरान इन किस्मों के 570 किलोग्राम बीज का उत्पादन किया गया. अगले बुवाई सत्र में बुवाई के लिए किसानों के पास पर्याप्त मात्रा में बीज उपलब्ध है. यह जानकारी कृषि एवं किसान कल्याण राज्य मंत्री कैलाश चौधरी ने शुक्रवार को राज्यसभा में एक लिखित उत्तर में दी.
सुपरकॉट- कपास की यह वैरायटी अच्छी किस्मों में से एक मानी जाती है. यह किस्म चूसक कीड़ो के लिए सहिष्णु होती है. सिंचित असिंचित क्षेत्रों में इसकी बुवाई कर सकते है. मध्यम और भुरभुरी मिट्टी में इसकी बुवाई कर आसानी से कर सकते है. इसका फसल 160-170 दिनों में तैयार हो जाती है.
अजीत- कपास में यह वैरायटी सबसे अच्छी मानी जाती है. यह किस्म चूसक कीड़ो के लिए सहिष्णु होती है. सिंचित असिंचित क्षेत्रों में इसकी बुवाई कर सकते है. इसका फसल कालावधि 145-160 दिन का है.
महिको बाहुबली- यह मध्यम कालावधि में पकने वाली किस्म है. इसका फसल की साइज एक जैसी होती है और फसल का वजन भी अच्छी होती है. यह किस्म कर्नाटक,आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और राजस्थान में ज्यादा मात्रा में लगाई जाती है. इसकी उत्पादन क्षमता 20-25 क्विंटल प्रति एकड़ है.