
छत्तीसगढ़ का धमतरी जिला अपनी प्राकृतिक सुंदरता और विशाल जलक्षेत्रों के लिए जाना जाता है. यहां की लगभग 6 प्रतिशत भूमि जलमग्न है. सालों से इन जलमग्न इलाकों को खेती के लिए बेकार माना जाता था. नीलेश मीनपाल ने इस चुनौती को एक बड़े अवसर में बदल दिया. इसी पानी को अपनी ताकत बनाया गांव रत्नाबांधा के प्रगतिशील किसान नीलेश मीनपाल ने. उन्होंने देखा कि जो तालाब और दलदली जमीन खाली पड़ी रहती है, वह असल में "सफेद सोना" उगल सकती है.
नीलेश ने पारंपरिक खेती से हटकर कमल की खेती को अपनाया. आज उनकी यह पहल न केवल उनके परिवार, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए एक नई उम्मीद बनकर उभरी है. उन्होंने यह साबित कर दिया कि अगर सही सोच और मेहनत हो, तो पानी में डूबी हुई जमीन भी सोने जैसा मुनाफा दे सकती है. आज नीलेश जी का यह प्रयोग न केवल उनके लिए, बल्कि पूरे जिले के किसानों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया है.
अक्सर किसान जलभराव वाली जमीन को खेती के लिए अनुपयोगी मान लेते हैं, लेकिन नीलेश ने इस चुनौती को अवसर में बदल दिया. उन्होंने छोटे-बड़े तालाबों और जलमग्न क्षेत्रों में कमल के पौधे लगाए. कमल एक ऐसा 'जलीय पौधा' है जो पानी में डूबी मिट्टी में भी बहुत तेजी से पनपता है. नीलेश की इस तकनीक ने जिले के 28,000 हेक्टेयर से अधिक जलक्षेत्र को उत्पादक बनाने का एक रास्ता दिखाया है, उन्हें सिखाया कि कैसे वे प्राकृतिक तालाबों और जलभराव वाले क्षेत्रों का उपयोग कमल उगाने के लिए कर सकते हैं जिससे अब बेकार पड़ी जमीन से भी भारी मुनाफा कमाया जा सकता है.
पारंपरिक धान की खेती के मुकाबले नीलेश को कमल की खेती में बहुत कम लागत और अधिक मुनाफा मिलता है. उन्होंने अपने अनुभव से बताया कि एक हेक्टेयर क्षेत्र में कमल उगाने पर लगभग 88,000 से 1,20,000 रुपये तक की शुद्ध बचत होती है. सबसे बड़ी बात यह है कि इस खेती के लिए उन्हें अलग से सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि यह प्राकृतिक रूप से जलमग्न क्षेत्रों में फलता-फूलता है.
इस सफलता ने उनकी जीवनशैली को बदल दिया है और वह अब एक उद्यमी किसान के रूप में पहचाने जाते हैं. यह पारंपरिक फसलों की तुलना में काफी बेहतर है. इस सफलता को देखते हुए अब वैज्ञानिक भी इसकी पैदावार बढ़ाने और इसे बड़े स्तर पर लागू करने पर विचार कर रहे हैं. नीलेश की कहानी साबित करती है कि अगर सही सोच और नई तकनीक का साथ हो, तो पानी में भी खुशहाली के फूल खिलाए जा सकते हैं.
धमतरी जैसे जिलों में जहां छोटे और बड़े सैकड़ों वेटलैंड्स मौजूद हैं, वहां कमल की खेती का भविष्य बहुत उज्ज्वल है. नीलेश का लक्ष्य अब इस नवाचार को व्यापक स्तर पर फैलाना है. नीलेश मीनपाल की यह कहानी हमें सिखाती है कि संसाधनों का सही उपयोग और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर किसी भी मुश्किल हालात को समृद्धि में बदला जा सकता है.
कमल की खेती की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका कोई भी हिस्सा बेकार नहीं जाता. नीलेश बताते हैं कि जहां इसके फूलों की मांग धार्मिक और सामाजिक कार्यों में रहती है, वहीं इसकी जड़ (कमल ककड़ी या मुरार) का उपयोग सब्जी के रूप में किया जाता है. इसके अलावा, कमल के बीजों का इस्तेमाल आयुर्वेद में दवाइयां बनाने के लिए होता है. नीलेश अपनी फसल से फूल, पत्तियां, फल और जड़ें—सब बेचकर साल भर कमाई करते हैं. यह एक ऐसी खेती है जिसमें लागत कम और उपयोग अनेक हैं.
नीलेश की इस सफलता का सबसे बड़ा असर स्थानीय मछुआरा समाज पर पड़ा है. वे अब प्राकृतिक और कृत्रिम तालाबों में कमल उगाकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन रहे हैं. नीलेश खुद एक मार्गदर्शक के रूप में काम कर रहे हैं और अन्य ग्रामीणों को भी इस दिशा में प्रोत्साहित कर रहे हैं.
इस नवाचार से ग्रामीण इलाकों में रोजगार के नए साधन खुले हैं और लोगों का पलायन कम हुआ है, क्योंकि अब उनके पास अपने ही गांव के पानी से कमाई का जरिया है. उन्होंने स्थानीय समुदायों को संगठित किया और उन्हें सिखाया कि कैसे वे प्राकृतिक तालाबों और जलभराव वाले क्षेत्रों का उपयोग कमल उगाने के लिए कर सकते हैं. इससे उन लोगों को स्वरोजगार मिला जिनके पास खेती के लिए सूखी जमीन नहीं थी. आज नीलेश जी के मार्गदर्शन में कई परिवार दलदली क्षेत्रों से अपनी आजीविका चला रहे हैं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहे हैं.