रागी किसानों की आहार संबंधी आदतों और अर्थव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. यूं तो रागी की फसल कई रोगों से प्रभावित होती है, परंतु इन सब में हरित बाली रोग सबसे अधिक (28-90 प्रतिशत) हानि पहुंचाता है. इससे प्रति वर्ष उत्पादन में काफी कमी हो जाती है और किसानों को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ता है. रोगों का समुचित प्रबंधन करके इनसे होने वाली हानि को कम किया जा सकता है. कृषि वैज्ञानिक संजीव कुमार, राकेश कुमार, आनंद कुमार और हंसराज बताते हैं कि भारत में रागी की मांग अचानक से बढ़ रही है. बाजार में इसकी बढ़ती मांग को देखते हुए किसान इसकी खेती करने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं और इसकी कीमत भी काफी अच्छी मिल रही है.
इसके साथ ही इसकी खेती करना ज्यादा कठिन भी नहीं है. यानी रागी की खेती कर किसान कम मेहनत में ही अच्छी कमाई कर सकते हैं. पूरे विश्व में रागी का 58 प्रतिशत उत्पादन अकेले भारत में ही होता है. पहले इसे गरीबों का अनाज कहा जाता था. अपने पौष्टिक गुणों के कारण आजकल यह सभी लोगों के पसंदीदा आहार में शुमार होती जा रही है. इसमें प्रोटीन,रेशा, वसा और कार्बोहाइड्रेट की मात्रा सबसे अधिक मात्रा पाई जाती है. इसके अलावा थायमीन, नियासिन, रिवोफ्लेविन जैसे अम्ल भी इसमें पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं.
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इस रोग के प्रमुख लक्षण रागी की बाली पर दिखाई देते हैं. इसमें दानों की जगह पूरी बाली या निचले भाग में छोटी ऐंठी हुई, बालीदार हरी पत्तियों जैसी संरचनाओं में परिवर्तित हो जाती हैं. इस रोग को हरित बाली एवं कोडिया रोग के नाम से भी जाना जाता है.
गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करनी चाहिये. फसल की अगेती बुआई करनी चाहिए एवं फसलचक्र अपनाना चाहिए. फसल में रोग दिखाई देते ही बुआई के 30 दिनों बाद मेटालेक्सिल+मैंकोजेब 2.5 प्रति लीटर पानी दर से 10 दिनों के अंतराल पर 2 छिड़काव करें.
इस रोग के कारण औसत नुकसान लगभग 28 प्रतिशत और स्थानिक क्षेत्रों में उच्चतम 80-90 प्रतिशत तक होता है. संक्रमण अंकुरण के दूसरे सप्ताह से नर्सरी में दिखाई देता है. जल्दी ही पूरी नर्सरी के साथ-साथ मुख्य खेत में भी फैल जाता है. पत्तियों पर छोटे भूरे अंडाकार से लेकर लम्बे धब्बे दिखाई देते हैं. नई पत्तियां नर्सरी में ही पूरी तरह सूख जाती हैं. मुख्य खेत में पत्तियों पर गोलाकार धब्बे दिखाई देते हैं. कई धब्बे आपस में जुड़ जाते हैं और पत्ते सूखने का कारण बनते हैं.
ट्राईसाइक्लाजोल (8 ग्राम/कि.ग्रा. बीज) के साथ बीजों का उपचार करने के बाद बुआई करनी चाहिये. प्रोपीकोनाजोल या ट्राइसाईक्लाजोल (1.5 मि.ली./लीटर) के दो छिड़काव, पहला बाली निकलने के समय और दूसरा 15 दिनों के अंतराल पर करना चाहिये. प्रतिरोधी किस्में वीएल 149, जीपीयू 26, जीपीयू 28, सीओ 13 आदि को उगाना चाहिए.
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