भारत की आत्मा गांवों में बसती है. गांवों के बच्चे आज भी बदलते भारत में पारंपरिक खिलौनों से खेलते हैं. गिट्टी के साथ गोटी का खेल आप और हमने बचपन में बहुत खेला है. ऐसा खेल आज भी चल रहा है.
ये तस्वीरें देख आपको पुरानी बातें याद जरूर आ रही होंगी. इस खेल को आपके यहां भले ही किसी दूसरे नाम से जाना जाता हो. लेकिन यह खेल आज भी प्रासंगिक है. बच्चे आज भी इस खेल का आनंद लेते हैं.
यह तस्वीर बिहार के कैमूर जिले की पहाड़ियों की गोद में बसे रामगढ़ गांव की है. यहां की बच्चियां शाम के समय गिट्टी के साथ गोटी खेलती हैं. यह तब है जब बाजार आधुनिक खिलौनों से भरा पड़ा है. लेकिन ये बच्चे अपने पुराने खेल में ही आनंद ले रहे हैं.
इलेक्ट्रिक, बैटरी वाले खिलौनों की गाड़ियां बहुत तेजी से अपना बाजार बना रही हैं. वहीं आज से कभी दो दशक पहले लकड़ी से बने खिलौनों का व्यापार काफी समृद्ध था. आधुनिक खिलौनों के बीच ये पुराने खिलौने आज भी जिंदा हैं.
पुराने समय की बात करें तो ग्रामीण क्षेत्र में लगने वाले मेलों में सबसे ज़्यादा इस तरह के खिलौने बिका करते थे. लेकिन आज इस खिलौनों को बनाने वाले कारीगर कम होते जा रहे हैं. बच्चों की रुचि भी कुछ-कुछ घट रही है.
लकड़ी के खिलौने बनाने वाले कारीगर कहते हैं कि अगर सरकार इस क्षेत्र में थोड़ी मदद करे तो उनके जीवन की गाड़ी तेजी से आगे बढ़ सकती है. बिहार के कैमूर जिले के देवहालिया गांव के रहने वाले अरविंद सिंह कहते हैं कि उनके जमाने में खेल और खिलौने बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत करते थे.
आज के खेल और खिलौने मोबाइल और सोशल मीडिया तक सीमित हो गए हैं. यह दौर शहर से गांव तक पहुंच गया है. गांव के बच्चे भी अब मोबाइल में खोए-खोए से दिखते हैं. डर है कि ये बच्चे अपने उन पारंपरिक खेल और खिलौनों से दूर न हो जाएं.
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