देश के कई मंदिर काफी समृद्ध हैं, जिनमें भगवान जगन्नाथ का पुरी मंदिर भी शामिल है. भगवान जगन्नाथ के मंदिर की रसोई दुनिया की सबसे बड़ी रसोई है, जो प्रतिदिन हजारों लोगों को सेवा प्रदान करती है. हर साल देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के बाद 56 भोग का महाप्रसाद खाने के लिए यहां आते हैं. इस मंदिर में भोग को बनाने के लिए मिट्टी और ईंट से बने 240 स्टोव हैं. 500 रसोइये 300 सहयोगियों के साथ मिलकर लाखों लोगों के लिए 56 भोग तैयार करते हैं. प्रत्येक चूल्हे पर 9 बर्तनों को एक के ऊपर एक रखकर खाना पकाया जाता है. अंक 9 नवग्रह, 9 धान्य और 9 दुर्गाओं का भी प्रतिनिधित्व करता है. ऐसे में यहां पर बनने वाले खाने में आलू और टमाटर का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.
आपको बता दें भोग में आलू और टमाटर जैसे "विदेशी" खाने के सामानों की अनुमति नहीं है. इस सूची में और भी कई सब्जी शामिल हैं जैसे फूलगोभी, पत्तागोभी, चुकंदर, मक्का, हरी मटर, गाजर, शलजम, बेल मिर्च, धनिया, बीन्स, मिर्च मिर्च, हरी बीन्स, करेला, भिंडी और खीरे जैसी सब्जियों को भी महाप्रसाद में शामिल करने से रोक दिया गया है.
वहीं उड़िया में टमाटर को बिलाती (विदेशी) के नाम से जाना जाता है. जिस वजह से इसे किसी भी भोग में इस्तेमाल नहीं किया जाता है. मान्यताओं के मुताबिक आलू और टमाटर भारत में विदेशियों के द्वारा उगाया जाता था और उन्हीं के द्वारा भारत में लाया भी गया. जिस वजह से आज भी जगन्नाथ मंदिर में इस सब्जी पर बैन है.
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ऐसा कहा जाता है कि मंदिर में हर दिन केवल 20 हजार लोगों के लिए प्रसाद बनाया जाता है लेकिन त्योहार के दिनों में यह 50 हजार लोगों के लिए प्रसाद बनाया जाता है. लेकिन ऐसा कहा जाता है कि अगर किसी दिन लाखों लोग भी आते हैं तो वे प्रसाद ग्रहण करके ही जाते हैं.
भगवान का प्रसाद मंदिर के पास गंगा-जमुना नाम के दो कुओं के पानी से तैयार किया जाता है. जिस वजह से इस प्रसाद का स्वाद काफी अलग और बेहद स्वादिष्ट होता है.
जब भोजन तैयार हो जाता है, तो वहां देवी पार्वती का एक मंदिर होता है, जिसका नाम विमलादेवी है. महाप्रसाद बनाने के बाद सबसे पहले देवी पार्वती को भोग लगाया जाता है और उसके बाद भगवान जगन्नाथ को भोग लगाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि एक बार भगवान की इच्छानुसार देवी लक्ष्मी ने भगवान की अनुपस्थिति में यह महल नारदमुनि को दे दिया था. तभी से भगवान के सामने भोजन न ग्रहण करने की परंपरा चली आ रही है.
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