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मराठी फिल्म ‘गाभ्रिचा पाऊस’: किसान, कपास की खेती, बारिश और एक अंतहीन संघर्ष

मराठी फिल्म ‘गाभ्रिचा पाऊस’: किसान, कपास की खेती, बारिश और एक अंतहीन संघर्ष

सतीश मनवर ऐसे ही एक युवा निर्देशक हैं. फंडिंग की कमी और मुश्किल हालत में फिल्म बनाने की कहानी मराठी सिनेमा की दुनिया में नई नहीं है. अच्छी बात यह है कि किसानों की तरह ही इन युवा फिल्म निर्देशकों का जीवट भी कमाल का है. सतीश मनवर विदर्भ के एक ग्रामीण परिवार के ही सदस्य हैं.

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वक्त-बेवक्त की बारिश से किसान आज भी परेशान हैं. हाल ही में हुई बेमौसम बारिश ने उत्तर भारत के किसानों को एक बार फिर हताश कर दिया. पिछले कुछ दशकों से महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र का किसान बारिश के इंतज़ार में और बेवक्त बारिश की मार से लगातार परेशान रहा है. अनेक किसानों ने कर्जे के बोझ तले आत्महत्या तक की. यह किसान की जीजीविषा ही है कि वह इन कठिन हालात में भी खेती किसानी नहीं छोड़ता और हर बार नए संघर्ष के लिए उठ खड़ा होता है. यूं तो किसानों द्वारा आत्महत्या करना एक हृदयविदारक विषय है, लेकिन कुछ युवा मराठी फ़िल्मकारों ने इस गंभीर विषय पर फिल्में बनाते हुए एक यथार्थपरक नज़रिया अपनाया है और जीवन में निहित विडम्बना और डार्क ह्यूमर का इस्तेमाल किया है.

किसानों की ख़ुदकुशी की खबरें बनीं फिल्म की प्रेरणा

सतीश मनवर ऐसे ही एक युवा निर्देशक हैं. फंडिंग की कमी और मुश्किल हालत में फिल्म बनाने की कहानी मराठी सिनेमा की दुनिया में नई नहीं है. अच्छी बात यह है कि किसानों की तरह ही इन युवा फिल्म निर्देशकों का जीवट भी कमाल का है. सतीश मनवर विदर्भ के एक ग्रामीण परिवार के ही सदस्य हैं. पुणे की सावित्रीबाई फुले यूनिवर्सिटी से कला और थिएटर में पढ़ाई करने के बाद सतीश रंगमंच से ही जुड़ गए. लेकिन फिल्म बनाने की उत्कट इच्छा हमेशा से थी. 2007 में उन्होने विदर्भ में किसानों की आत्महत्या की खबरों से विचलित होकर ‘गाभ्रिचा पाऊस’ (बारिश को धिक्कार है!) की स्क्रिप्ट लिखनी शुरू की.

इसके बाद प्रोड्यूसर की तलाश शुरू हुई. लेकिन वादा करने के बाद एक प्रोड्यूसर ऐन शूटिंग से पहले पीछे हट गया. तब सतीश की मदद में आगे आए अभिनेता गिरीश कुलकर्णी. गिरीश कुलकर्णी के मित्र प्रशांत पेठे, जो मर्चेन्ट नेवी में थे,  इस फिल्म में पैसा लगाने को राज़ी हो गए. उन्होने कुछ और लोगों को भी फिल्म में निवेश करने के लिए राज़ी कर लिया. सिनेमैटोग्राफर सुधीर पलसाने ने दृश्यांकन के लिए अपने जेहन में रखी प्रसिद्ध फ्रेंच चित्रकार ज्यां फ़्रांसुआ मिल्ले की पेंटिंग ‘द एंजेलस’. इस पेंटिंग में दहकते हुए लैंडस्केप की पृष्ठभूमि में किसानों की आकृतियां चित्रित थीं.

विदर्भ के एक छोटे से गांव जालु को लोकेशन के तौर पर चुना गया. जून में शूटिंग शुरू होनी थी और मॉनसून से पहले खत्म- बजट और समय दोनों कम थे. फिल्म की नायिका के तौर पर सोनाली कुलकर्णी को चुना गया था, जो उस वक्त ‘फियर फ़ेक्टर’ नाम के रियलिटी शो में काम कर रही थीं. जब उन्हें मालूम हुआ कि शूटिंग के लिए वक्त बहुत थोड़ा है तो उन्होने इस फिल्म की खातिर रियलिटी शो को तिलांजलि दे दी. वे फिल्म की स्क्रिप्ट और सतीश की इस कहानी में आस्था से बहुत प्रभावित थीं.

एक छोटे से गांव में हुई फिल्म की शूटिंग

लेकिन जालु जैसे छोटे से गांव में रहने तक की ठीक जगह नहीं थी. एक शादीघर को किसी तरह फिल्म क्रू के रहने के मुताबिक बनाया गया. गांव में पानी की कमी थी और 13 किलोमीटर दूर से रोजाना पानी लाया जाता था. फिर जब क्रू दोपहर का खाना खा रही होती तो गांव वाले आसपास इकट्ठा होकर उन्हे उत्सुकतावश देखने लगते. तब फिल्म क्रू ने इन गांव वालों को भी खाने के लिए बुला लिया. साथ-साथ खाने और बातचीत करने से फिल्म के सदस्यों और गांव वालों में एक स्नेहपूर्ण रिश्ता बन गया तो सोनाली को एहसास हुआ कि वे किन कष्टों से गुज़र रहे हैं.

“उन औरतों से बात करके मुझे एहसास हुआ कि वे जितनी वंचित थीं, भावनात्मक तौर पर वे उतनी ही सबल थीं. यह विरोधाभास मेरे लिए एक तरह से आंखें खोल देने वाला अनुभव था” सोनाली ने एक वैबसाइट को बताया. गांव में कोई ऐसा घर नहीं था जहां किसी व्यक्ति ने आत्महत्या ना की हो. घर के मर्द के चले जाने के बाद घर का सारा बोझ औरत के ही कंधे पर आ जाता.

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उनकी ये कहानियां सुन कर कई बार सोनाली कुलकर्णी फूट-फूट कर रोने लगतीं तो यही महिलाएं उन्हें ढांढ़स बंधातीं. गिरीश कुलकर्णी भी किसानों के संपर्क में आए तो उन्हें अपना किरदार समझ आया. “मुझे यह समझ नहीं आता था कि इतने कष्टों और संघर्षों के बावजूद किसना इतना भावहीन क्यों है? जब मैं इन किसानों से मिला तो समझ आया कि यथार्थ आप पर क्या असर डालता है.“ गिरीश ने एक इंटरव्यू में बताया था.

किसान और कुदरत का रिश्ता बयान करती फिल्म

किसना का किरदार तब गिरीश के सामने खुल गया जब एक गांव वाले ने उन्हें बताया कि उसके भाई ने भी ख़ुदकुशी कर ली थी, “क्योंकि वह थक गया था. उसने सारे जतन किए लेकिन धरती ने उसकी कोशिशों पर ध्यान ही नहीं दिया.“ तब गिरीश को समझ आया कि एक किसान और ज़मीन के बीच एक तरह का प्रेम संबंध होता है और जब ज़मीन रूठ जाती है, तो किसान का दिल टूट जाता है, और वह जीवन से हार मान लेता है.

फिल्म की कहानी घूमती है किसना नाम के एक गरीब किसान के इर्दगिर्द. उस के पड़ोसी ने कर्ज़ से तंग आकर आत्महत्या कर ली है और उसकी पत्नी अलका और मां चिंतित हैं कि कहीं किसना भी यह कदम ना उठा ले. इसीलिए अलका अपने नन्हें बेटे दीनू को हिदायत देती है कि वह हमेशा किसना के साथ रहे, उसे खुश करने के लिए उधार लेकर घर में अच्छे पकवान बनाती है और खुश रहने का प्रयत्न करती है. उधर कर्ज़ में डूबा किसना उधार लेकर कपास के बीज लाता है लेकिन मॉनसून में बारिश कम होने के कारण फसल नहीं होती तो किसना हार मानने लगता है. तब अलका कुछ और जेवर बेचती है और फिर से कपास के बीज खरीदे जाते हैं.

अब की बार अनियमित बारिश से फसल बहुत कम होती है. किसना हार नहीं मानता और बैंक से कर्ज़ लेकर बोरवेल लगाता है. लेकिन बोरवेल ठीक से पानी नहीं खींच पाता क्योंकि गांव में बिजली बहुत कम आती है. तब गांव का पाटील सलाह देता है कि उसे इलैक्ट्रिक पावर ट्रांसमिशन लाइन से एक तार खींच कर अपने बोरवेल से जोड़ लेना चाहिए. अनपढ़ किसना यह नहीं जानता कि बिजली की हाइटेंशन वायर को छूना कितना खतरनाक है और बिजली लेने के चक्कर में करेंट लगने से मर जाता है.

‘डार्क ह्यूमर’ का असरदार प्रयोग

‘गाभ्रिचा पाऊस’ चुभते हुए व्यंग और डार्क ह्यूमर का बखूबी इस्तेमाल करती है. दरअसल यह डार्क ह्यूमर किसानों की ज़िंदगी से ही उपजा है. “उनके जीवन में इतना कुछ हो जाता है, लेकिन फिर भी जीवन तो चलता ही रहता है, बसर तो करनी ही पड़ती है!” निर्देशक सतीश मनवर ने किसानों की इस कड़वी हकीकत को इतने विडंबनापूर्ण तरीके से दिखलाया कि यह व्यंग लगभग काव्यात्मक जान पड़ता है.

काव्यात्मक और प्रासंगिक फिल्म

फिल्म 2009 में प्रतिष्ठित रोटरडैम फिल्म फेस्टिवल में रिलीज़ हुई. और हूबेर्ट बॉल फ़ंड द्वारा वितरित की गई पहली मराठी/भारतीय फिल्म बनी. हालांकि यह कोई राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं जीत पाई लेकिन इसे बहुत सारे अन्य अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया और देश में भी समीक्षकों ने फिल्म की प्रशंसा की.

सतीश मनवर की यह पहली फीचर फिल्म थी. आज सतीश एक प्रतिष्ठित फिल्मनिर्देशक-लेखक हैं. उनका मानना है कि “एक फिल्म की सफलता महज उसकी कमाई से नहीं आंकी जा सकती. फिल्म की अहमियत तो एक व्यक्ति के जीवन से परे होती है”. सतीश भी किसानों की तरह कोशिश करना नहीं छोडते. “मैं कभी कोई चीज़ छोडता नहीं हूं. हमेशा आशावान रहता हूं”, सतीश ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था. बहरहाल, ‘गाभ्रिचा पाऊस’ के रिलीज़ होने के 15 साल बाद भी किसानों की दशा कमोबेश वही है. समय और स्थान से परे यह यथार्थपरक और काव्यात्मक फिल्म हमेशा प्रासंगिक बनी रहेगी.