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मंथन फ‍िल्म के 'प्रोड्यूसर' थे 5 लाख क‍िसान, दो-दो रुपये जुटाकर बाॅलीवुड में बनाया था 'रि‍कॉर्ड'

मंथन फ‍िल्म के 'प्रोड्यूसर' थे 5 लाख क‍िसान, दो-दो रुपये जुटाकर बाॅलीवुड में बनाया था 'रि‍कॉर्ड'

‘मंथन’ की शूटिंग हुई राजकोट के संगनवा गांव में. 45 दिनों तक साठ लोगों की फिल्म क्रू इसी गांव में रही थी. हालांकि इस फिल्म ने संगनवा को इतना मशहूर नहीं बनाया जितना ‘शोले’ ने रामपुर को, लेकिन उस वक्त यहां के करीब 12,00 निवासियों को इस अनूठे रचनात्मक प्रयास का हिस्सा बनने का मौका मिला.

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मंथन किसानों के मुद्दे पर बनी बॉलीवुड की मशहूर फिल्म है मंथन किसानों के मुद्दे पर बनी बॉलीवुड की मशहूर फिल्म है

आजकल के शहरी भारत में किसानों की छवि दो विपरीत छोर पर रहती है – या तो किसान को एक असहाय, कर्जे में डूबे मासूम ग्रामीण के रूप में देखा जाता है या फिर अन्नदाता के तौर पर उन्हें पूजनीय माना जाता है, जबकि असलियत इन दोनों छवियों के बीच कहीं रहती है. किसान मजबूर हैं तो उद्यमी भी, मौसम की मार से बेहाल हैं तो मेहनत और सूझबूझ से सफलता की इबारत भी लिख रहे हैं. बरसों पहले हमारे किसानों ने एक ऐसी पहल की थी जो शायद दुनिया के सबसे पहले क्राउड फंडिंग से लांच हुए उद्यम की मिसाल है.

1976 में गुजरात मिल्क कोऑपरेटिव मार्केटिंग फ़ेडरेशन लिमिटेड ने प्रोड्यूस की एक फिल्म जिसका नाम था मंथन. इस फिल्म को बनाने के लिए लगभग पांच लाख किसानों ने मात्र दो रुपये का सहयोग दिया था. फिल्म जब रिलीज़ हुई तो भारी तादाद में किसान आए इस फिल्म को देखने और समांतर सिनेमा की तर्ज़ पर बनी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भी हिट साबित हुई और इसने कई पुरस्कार भी जीते.

यह तो बहुत लोग जानते हैं कि मंथन की कहानी भारत की दूध क्रांति जिसे श्वेत क्रांति भी कहा जाता है, पर केंद्रित थी. लेकिन फिल्म की कहानी गुजरात के एक गांव की ही बात नहीं कहती, सिर्फ एक दूध क्रांति को ही हाइलाइट नहीं करती बल्कि भारत के गांवों के विभिन्न पहलुओं, मुद्दों और समस्याओं पर बात करते हुए सूक्ष्म मानवीय संवेदनाओं और जटिल रिश्तों भी बखूबी दर्शाती है. इतनी बहुआयामी और नाज़ुक कहानी लिखना आसान नहीं था. इसीलिए ये जिम्मा उठाया खुद निर्देशक श्याम बेनेगल ने और दूध क्रांति के प्रणेता वर्गीस कुरियन ने उनकी मदद की.

यह फिल्म गुजरात के खेड़ा ज़िला के गरीब किसानों के प्रयास से प्रेरित थी, जिन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता त्रिभुवनदास पटेल के नेतृत्व में एक छोटे से कोऑपरेटिवस की शुरुआत की. इस प्रयास को आगे बढ़ाया वर्गीस कुरियन ने और जल्द ही गुजरात के आनंद में अमूल की स्थापना हुई, जो देश का अहम डेयरी कोऑपरेटिवहै, जिसके मालिक हैं गुजरात के करीब 26 लाख किसान. इससे शुरुआत हुई देश भर में एक मिल्क ग्रिड बनाने की और 1973 में गुजरात कोऑपरेटिवस मिल्क मार्केटिंग फ़ेडरेशन लिमिटेड की स्थापना हुई, जिसके पांच लाख सदस्यों ने दो रुपये की फंडिंग से इस फिल्म को बनाने में योगदान दिया.

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चूंकि कहानी में बहुत तरह के रंग और शेड्स थे, इसलिए स्क्रीनप्ले लिखा मशहूर निर्देशक और लेखक विजय तेंदुलकर ने और संवाद लिखे कैफी आज़मी ने. सिनेमेटोग्राफी थी गोविंद निहलानी की. गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटील, अमरीश पुरी जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने इस फिल्म में चार चांद लगा दिए. फिल्म का टाइटल सॉन्ग “मेरो गाम कथा पारे” को गाया था प्रीति सागर ने. प्रीति ने 1977 में इस गाने के लिए बेस्ट फ़ीमेल सिंगर का पुरस्कार जीता. बाद में अमूल के विज्ञापन में इस गाने का इस्तेमाल हुआ तो यह गाना टेलिविजन पर हर गांव आधारित कार्यक्रम का मानो एक एंथम बन गया. फिल्म इतनी मशहूर हुई कि इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद (आईआरएमए) ने अपने ई-चौपाल मॉडल की टैगलाइन फिल्म के एक संवाद “ये सीसोटी आपड़ी छे!” की तर्ज़ पर ही बनाई.

‘मंथन’ उन मुद्दों और समस्याओं को ईमानदारी से उजागर करती है, जिनसे हमारे किसान रोजमर्रा की ज़िंदगी में जूझते हैं. मसलन जाति की राजनीति, महिलाओं का संघर्ष और अमीरी-गरीबी के बीच की गहरी खाई. फिल्म बहुत कुशलता से दिखलाती है कि राजनीति में किस तरह जाति और वर्ग के मुद्दों को लोगों को उकसाने और गुमराह करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

जैसा कि पहले कहा गया, ‘मंथन’ दूध क्रांति के प्रणेता वर्गीस कुरियन से प्रेरित है और एक वैटरिनरी डॉक्टर राव के जरिये से कहानी कहती है, जो शहर से गुजरात के एक गांव में आते हैं. मिल्क कोऑपरेटिवस बनाने के लिए. यहां उनका सामना होता है गांव के गरीब और दलित किसानों से जो अपने उत्पाद को एक स्थानीय डेयरी मालिक मिश्रा को बेचने के लिए विवश हैं. डॉ राव और उनकी टीम को ना सिर्फ जातिगत समस्याओं, गांव की राजनीति, महिलाओं के मुद्दों से जूझना पड़ता है, बल्कि ग्रामीण लोगों में उनके प्रति जो अविश्वास है, उससे भी संघर्ष करना पड़ता है.

इस सबके बीच कुछ खूबसूरत रिश्ते बनते हैं, कुछ कड़वी असलियतें ज़ाहिर होती हैं और जब डॉक्टर राव को गांव छोड़ कर जाना पड़ता है तो कोऑपरेटिवस का जिम्मा उठाते हैं – हरिजन नेता भोला (नसीरुद्दीन शाह) और बच्चे और परिवार का बोझ अकेले ही संभालती साहसी बिन्दु.

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‘मंथन’ की शूटिंग हुई राजकोट के संगनवा गांव में. 45 दिनों तक साठ लोगों की फिल्म क्रू इसी गांव में रही थी. हालांकि इस फिल्म ने संगनवा को इतना मशहूर नहीं बनाया जितना ‘शोले’ ने रामपुर को, लेकिन उस वक्त यहां के करीब 12,00 निवासियों को इस अनूठे रचनात्मक प्रयास का हिस्सा बनने का मौका मिला. उस वक्त खेतिहर मजदूरों को रोजाना पांच रुपये की दिहाड़ी मिलती थी.निर्देशक श्याम बेनेगल ने बहुत से इन किसानों को सात रुपये दिहाड़ी पर फिल्म में काम दिया. उन्हें सिर्फ कोऑपरेटिवस की बैठकों में किसान सदस्यों के तौर पर बैठना होता था. आज यह गांव करीब 500 लीटर दूध मिल्क कोऑपरेटिवस को देता है.

पिछले साल न्यूज़ एजेंसी पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में निर्देशक श्याम बेनेगल ने बताया था कि जब भी वे किसी व्यक्ति विशेष के जीवन पर फिल्म बनाते हैं तो दो चीजों का खास खयाल रखते हैं- वस्तु-परकता और सहानुभूति. वे हमेशा एक कहानी और एक व्यक्ति के इंसानी पहलू पर ज़्यादा ध्यान देते हैं. ‘मंथन’ इस बात का सशक्त प्रमाण है कि बतौर निर्देशक श्याम बेनेगल वर्गीस कुरियन से प्रेरित कहानी के हर इंसानी पहलू को सफलतापूर्वक ज़ाहिर करने में सफल हुए, इस तरह कि उससे जुड़े सामाजिक और राजनीतिक पक्ष भी व्यक्त हो जाएं.

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ये फिल्म एक तरह से आज़ादी के बाद के भारत की तस्वीर पेश करती है, जब गांव और गांव की राजनीतिक-सामाजिक संरचना बहुत महत्वपूर्ण थी और उसमें बदलाव लाना भी उतना ही ज़रूरी था. जाति और वर्ग के बीच की खाई गहरी थी और किसान, पशुपालक इन्हीं अड़चनों में फंसे आज़ादी के लिए कसमसा रहे थे. चूंकि कहानी का नायक एक शिक्षित डॉक्टर है और अंततः वह एक कोऑपरेटिवस बनाने में सफल होता है तो एक तरह से फिल्म बहुत कुछ साफ-साफ ना कहते हुए भी ये ज़ाहिर कर देती है कि शिक्षा और जागरूकता ही इन सभी समस्याओं से निजात दिला सकती है. डॉक्टर राव का किरदार यह भी साबित करता है कि अगर दृढ़ निश्चय हो तो एक व्यक्ति ही समाज में एक अच्छी और सकारात्मक बदलाव ला सकता है.

वैसे आज़ादी के पिचहत्तर साल बाद भी ये फिल्म उतनी ही प्रासंगिक है और इसका संदेश उतना ही महत्वपूर्ण. आप चाहें तो ‘मंथन’ को एक वाक्य में अमूल के विज्ञापन की टैग लाइन में व्यक्त कर सकते हैं - “द टेस्ट ऑफ इंडिया!”