मध्य प्रदेश के बैतूल में बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी ने ऐसी हरित क्रांति लाई कि आज उनकी हर जगह सराहना हो रही है. सरकार ने इन शरणार्थियों को पुनर्वास के लिए पांच-पांच एकड़ जमीन दी थी. जमीन बंजर थी पर इन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पथरीली जमीन को ऐसा बनाया कि अब इनकी जिंदगी खुशहाली हो गई है.
आज स्थिति ये हो गई कि इस क्षेत्र की पहचान धान के कटोरा के नाम से होने लगी है. इस गांव का नाम पूंजी है जिसकी कहानी आज हम जानने की कोशिश करते हैं. कहानी कुछ यूं है कि बैतूल में भारत और पाकिस्तान विभाजन के बाद पाकिस्तान में रहने वाले बंगाली समाज के लोग 1964 में शरणार्थी बनकर चोपना में पुनर्वास कैंप में रहने लगे. इसके बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश विभाजन के दौरान 1971 में भी कुछ बंगाली चोपना पुनर्वास केंद्र आए थे.
चोपना पुनर्वास क्षेत्र में रिफ्यूजी के लिए 32 गांव बनाए गए थे. धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई और वर्तमान में जनसंख्या 40 हजार तक पहुच गई है. इन 32 गांवों में 2500 शरणार्थी परिवार रहते हैं. जब शरणार्थी यहां आए थे तो सरकार ने इन्हें जीवन यापन करने के लिए प्रत्येक परिवार को पांच-पांच एकड़ जमीन दी थी. जमीन बंजर थी और पथरीली होने के कारण यहां पर किसी भी तरह की खेती नहीं हो सकती थी.
इन शरणार्थियों के सामने सिर्फ एक ही विकल्प था कि वे खेती करें क्योंकि यहां पर कोई उद्योग धंधे भी नहीं थे. शरणार्थियों ने धीरे-धीरे जमीन को उपजाऊ बनाने के लिए पानी के साधन तैयार किए. शुरू में छोटे छोटे नालों पर बंधान बनाए गए. इसके बाद छोटे तालाब के निर्माण किए गए. फिर सरकार ने भी कृषि विभाग और मनरेगा के माध्यम से यहां तालाब बनवाए.
पूंजी गांव के शरणार्थी 74 वर्षीय किसान रामकृष्ण सरकार का कहना है कि जब उनका परिवार यहां आया था तो गुजारा मुश्किल से होता था. सरकार ने भी ऐसी जमीन दी जिस पर कुछ भी पैदावार नहीं होती थी. बिना सरकार की मदद के तालाब खोदा और उसके बाद धीरे-धीरे जिंदगी में बहुत बदलाव आए. आज एक साल में तीन फसलों की पैदावार करते हैं और तालाब में मछली पालन करते हैं. एक साल में लगभग तीन लाख की आमदनी होती है. रामकृष्ण कहते हैं कि आज पक्का मकान है, ट्रैक्टर है और एक बेटे को इंजीनियर बना दिया है. अब जिंदगी बड़ी खुशहाल है.
अब हम आपको एक और किसान से मिलवाते हैं जो चोपना ग्राम पंचायत के उपसरपंच हैं और इनका नाम है किशोर विश्वास. किशोर का कहना है कि पानी की कीमत बंगाली समाज ही जानता है. इस क्षेत्र को धान का कटोरा बनाने में कड़ी मेहनत की है. छोटे-छोटे खेतों में मेढ़ बांध कर बारिश का पानी रोकना और धान की फसल का बंपर उत्पादन करना बहुत बड़ा काम था. इसके कारण ही इस पुनर्वास क्षेत्र की पहचान धान के कटोरा नाम से होने लगी है. आज प्रत्येक शरणार्थी के यहां पक्का मकान, कार और बच्चे उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं.
पूंजी गांव के किसान निखिल राय की भी कुछ ऐसी ही कहानी है जो गर्मी के मौसम में भी धान का उत्पादन कर रहे हैं. निखिल का कहना है कि पानी के लिए नाले में बांध बनाया और एक तालाब बनाया. आज नतीजा है कि साल में तीन फसलें लेते हैं. गर्मी में भी धान का उत्पादन कर लेते हैं. निखिल राय मछली का भी उत्पादन करते हैं और आज इनकी जिंदगी बहुत ही खुशहाल है.
आज इस क्षेत्र में किसान तीन फसल लेता है. मुख्य फसल के रूप में यहां धान है. इसके बाद दूसरी फसल चना, गेहूं, सरसों और तीसरी फसल के रूप में गर्मी के सीजन में मूंगफली, मूंग और मक्का का उत्पादन होता है. तरबूज की पैदावार भी यहां होती है. किसान मौसमी सब्जियों की पैदावार यहां अच्छी लेते हैं. तालाबों से जहां फसलों की सिंचाई होती है, वही इन तालाबों में मछली पालन का काम किया जाता है. बंगाली समाज के लोग मछली पालन खुद के लिए भी करते हैं और इसको बाजार में भी बेचते हैं.
यहां पुनर्वास क्षेत्र के 32 गांवों में से एक गांव है पूंजी जहां आत्मनिर्भर भारत की तस्वीर देखने को मिलती है. इस गांव में लगभग डेढ़ सौ मकान हैं. इन सभी परिवारों के पास खेत हैं और खेती करने के लिए इन्होंने छोटे-छोटे तालाब बनाए हैं. कई किसान सरकारी तालाबों से भी सिंचाई करते हैं. पूंजी गांव की तरह यहां के सभी गांव आत्मनिर्भर हैं.
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