आपको जानकर ताज्जुब होगा पर ये बात हकीकत है. बात ये है कि खेती-बाड़ी से जुड़े एक काम में बिहार ने पंजाब को पछाड़ दिया है. इस काम में बिहार आज पंजाब से आगे निकल गया है. यह काम है पराली से बायोचार बनाने का. बायोचार का मतलब है बायो चारकोल या जैविक कोयला जो बायोमास से बनता है. ये बायोचार फसलों के लिए खाद का करता है. इस बायोचार के निर्माण में आज बिहार, पंजाब को पीछे छोड़ चुका है. इससे किसानों की आमदनी तो बढ़ेगी ही, साथ ही मिट्टी की सेहत भी सुधर होगा. आज पंजाब इस चारकोल को बनाने में घाटे में चल रहा है जबकि बिहार को फायदा हो रहा है. बिहार के किसान इससे अच्छी आमदनी पा सकेंगे.
पराली से चारकोल बनाने का काम सबसे पहले पंजाब में शुरू हुआ. इस टेक्नोलॉजी को शुरू करने वाले व्यक्ति का नाम है आरके गुप्ता जो पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और सॉइल साइंस के हेड हैं. डॉ गुप्ता की सोच ने ही इस नई तकनीक को अंजाम दिया और पराली से चारकोल बनाने का काम शुरू हुआ.
इस टेक्नोलॉजी की खासियत है कि यह न केवल फसलों की पराली या ठूंठ को खत्म करती है बल्कि यह मिट्टी की सेहत को भी सुधारती है. पर्यावरण सुधारने में भी इसका बड़ा रोल है क्योंकि इसमें पराली को ढंक कर बायोचार यानी कि चारकोल बनाया जाता है जिससे प्रदूषण 70 फीसद तक घट जाता है. अगर उसी पराली को खुले में जलाकर चारकोल बनाएं तो धुएं से प्रदूषण बहुत अधिक बढ़ जाएगा.
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अब बिहार में इस चारकोल को बनाने का काम तेजी से बढ़ रहा है. हालांकि अभी दो साल से इस पर ट्रायल चल रहा है, मगर 12 कृषि विज्ञान केंद्रों पर इसे बनाने का काम शुरू हो गया है.
डॉ गुप्ता, जो अभी लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ एग्रीकल्चर में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं, ने कहा कि यह तकनीक 2016 में उनके द्वारा विकसित की गई थी. पंजाब में इसे लाडोवाल, जालंधर, अमृतसर, गुरदासपुर और बठिंडा में कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) में लगाया गया था, लेकिन इसे किसानों ने कभी नहीं अपनाया क्योंकि पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी को जरूरी सहायता नहीं मिली. उन्होंने कहा, पंजाब इसे अपनाने में नाकाम रहा, लेकिन बिहार को इसका लाभ मिलेगा.
डॉ. गुप्ता ने 'दि ट्रिब्यून' से कहा कि यह टेक्नोलॉजी पर्यावरण प्रदूषण को कम करने में मदद कर सकती है और इसे खाद के रूप में उपयोग करने से मिट्टी की सेहत, अनाज की उपज में सुधार करने में मदद मिल सकती है और मिट्टी में पानी रुकने की क्षमता में सुधार हो सकता है.
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बिहार कृषि विश्वविद्यालय, भागलपुर के एक्सटेंशन एजुकेशन के निदेशक डॉ. आरके सोहाने ने कहा कि उन्होंने 12 जिलों में 200 मॉडल विकसित किए हैं और वे प्रयोग के आधार पर किसानों को अपनी मिट्टी में जोड़ने के लिए बायोचार उपलब्ध करा रहे हैं. “हमने 2021 में प्रयोग शुरू किया और किसानों से अच्छे रिजल्ट मिले हैं. एक बार प्रयोग पूरा हो जाने पर हम सरकार से किसानों को इसके लिए सब्सिडी देने की सिफारिश करेंगे. एक चारकोल बनाने की भट्ठी लगाने में लगभग 50,000-70,000 रुपये का खर्च आता है.'' डॉ. सोहाने ने कहा.
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