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वैज्ञानिकों ने विकसित की सेब की नई किस्म, कांगड़ा के किसानों ने शुरू की इसकी खेती, जानें खासियत

वैज्ञानिकों ने विकसित की सेब की नई किस्म, कांगड़ा के किसानों ने शुरू की इसकी खेती, जानें खासियत

बागवानी विशेषज्ञ कहते हैं कि कम ठंड वाले सेब की किस्मों का एक और फायदा यह है कि रोपण के तीसरे वर्ष से ही फल लगने शुरू हो जाते हैं. देहरा के एक अन्य प्रगतिशील फल उत्पादक रक्ष पॉल कहते हैं कि गेहूं, धान और मक्का की पारंपरिक खेती में न केवल अधिक श्रम और समय लगता है, बल्कि यह उतना लाभदायक भी नहीं है.

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सेब की नई किस्म विकसित. (सांकेतिक फोटो) सेब की नई किस्म विकसित. (सांकेतिक फोटो)

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में भी किसानों अब सेब की खेती शुरू कर दी है. इससे पहले  केवल ऊपरी क्षेत्रों में ही किसान सेब उगाते थे. कहा जा रहा है कि बागवानी विभाग ने राज्य के निचले पहाड़ी क्षेत्रों के लिए कुछ गर्म तापमान सहन करने वाली सेब की किस्में विकसित की हैं. यही वजह है कि कांगड़ा के निचले इलाकों में सेब की कई किस्में उगाई जा रही हैं. किसानों को उम्मीद है कि उन्हें सेब बेचकर बंपर कमाई होगी.

द ट्रिब्यून की रिपोर्ट के मुताबिक, सेब की पारंपरिक किस्मों की खेती केवल ऊंचे क्षेत्रों में की जाती है, क्योंकि इसके लिए कलियों के समुचित विकास और अच्छी फल उपज के लिए सर्दियों के दौरान निष्क्रियता की अवधि की आवश्यकता होती है, जिसे चिलिंग ऑवर्स के रूप में जाना जाता है. ऐसे किसानों ने कांगड़ा जिले में सेब की फसलों में विविधता लाना शुरू कर दिया है. इसमें इज़राइल और अमेरिका में विकसित अन्ना, डोरसेट गोल्डन और एचआरएमएन 99 जैसी सेब की किस्में अपनाई गई हैं. इस क्षेत्र में गर्मियों के दौरान 40 से 45 डिग्री सेल्सियस तक का अत्यधिक तापमान होता है. लेकिन कांगड़ा जिले में विशेष रूप से देहरा, नगरोटा बगवां और शाहपुर उपमंडलों में इन कम ठंड वाले सेब की किस्मों को सफलतापूर्वक उगाया गया है.

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1500 किसानों ने लगाया सेब

राज्य बागवानी विभाग से प्राप्त आधिकारिक जानकारी के अनुसार, जिले में 170 हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 1,500 किसानों ने कम ठंड वाले सेब की किस्मों को सफलतापूर्वक उगाया है. इन कम ऊंचाई वाले गर्म क्षेत्रों में उगाए जाने वाले सेब जून में एक महीने पहले ही पकने लगे हैं, जबकि पारंपरिक उच्च ठंड वाले सेब जुलाई महीने से पकते हैं. बागवानी विशेषज्ञ कहते हैं कि कम ठंड वाले सेब की किस्मों का एक और फायदा यह है कि रोपण के तीसरे वर्ष से ही फल लगने शुरू हो जाते हैं. देहरा के एक अन्य प्रगतिशील फल उत्पादक रक्ष पॉल कहते हैं कि गेहूं, धान और मक्का की पारंपरिक खेती में न केवल अधिक श्रम और समय लगता है, बल्कि यह उतना लाभदायक भी नहीं है.

सरकार दे रही है सब्सिडी

रक्ष पॉल की माने तो बागवानी फसलों की खेती एक लाभदायक उद्यम है. उन्होंने जिले के किसानों और उत्पादकों से सेब की खेती के साथ अपने बागों में विविधता लाने का आह्वान किया है. इस बीच धर्मशाला के बागवानी उपनिदेशक कमल सेन नेगी ने ट्रिब्यून को बताया कि विभाग न केवल उत्पादकों को तकनीकी जानकारी प्रदान कर रहा है, बल्कि पौधरोपण के लिए 50 प्रतिशत सब्सिडी (50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर), ओलावृष्टि रोधी जाल खरीदने पर 80 प्रतिशत और ड्रिप सिंचाई सुविधा के लिए इतनी ही सब्सिडी दे रहा है. उन्होंने कहा कि सेब के पौधे जिले में सरकारी और सरकारी मान्यता प्राप्त निजी नर्सरियों में तैयार किए जा रहे हैं.

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