जलवायु परिवर्तन के लिहाज से झारखंड संवेदनशील बना हुआ है. असल में झारखंड में लगातार मौसम में बदलाव हो रहा है. इसके कारण बारिश के पैटर्न में बदलाव आया है. तापमान में भी उतार-चढ़ाव देखा गया है और बारिश में भी कमी आई. ऐसे में झारखंड जैसे पठारी राज्य में सबसे अधिक धान की खेती प्रभावित हो रही है. इसके अलावा राज्य में पड़ रहा सूखा किसानों के लिए चिंता का सबब बन रहा है. कुल मिलाकर देश की कई एजेंसियां जलवायु परिवर्तन की लिहाज से झारखंड को संवेदनशील बता रही हैं. इन सबके बीच किसान अधिक उपज पाने के लिए हाइब्रिड धान की खेती कर रहे हैं, जिसके कारण राज्य में पाए जाने वाले पारंपरिक धान की किस्में जो रोगरोधी और सूखारोधी है, उनकी खेती नहीं हो पा रही है. जिसका नुकसान किसानों को हो रहा है, लेकिन जो वर्तमान हालात है उससे यह लग रहा है पारपंरकि किस्मों की खेती करना ही फायदेमंद है और इसका संरक्षण भी करना जरूरी है.
पांरपरिक धान की किस्मों का संरक्षण करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जहां एक ओर अधिक उपज देने वाली किस्मों के उपज में स्थिरता आ गई है. वहीं दूसरी तरफ वैसी किस्मों की कमी होती जा रही है जो आज के जलवायु परिवर्तन का सामना कर सके साथ ही निरन्तर उत्पादन दे सकें. कृषि विज्ञान केंद्र रांची में धान से जुड़ी वैज्ञानिंक नेहा रंजन बताती हैं कि इन समस्याओं का एकमात्र हल देशी किस्मों का संरक्षण है जो कि भविष्य में तैयार किए जाने वाले विभिन्न किस्मों के विकास का मुख्य आधार होंगी.
देशी किस्मों के धान की गुणों को देखते हुए उन किस्मों के संरक्षण के लिए साल 2001 में भारत सरकार ने एक अधिनियम पारित किया था. जिसे ‘पौधा किस्म एवं कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम 2001’ के नाम से जाना जाता है. इस अधिनियम में कृषक के हितों की रक्षा के लिए पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं. अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के लिए कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि मंत्रालय ने 11 नवम्बर 2005 को पौधा किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण प्राधिकरण की स्थापना की.
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