वन करेला दरअसल ककोरा को कहा जाता है. आम भाषा में इसे मीठा करेला, कंटोला, करटोली आदि नामों से भी जाना जाता है. यह सब्जी करेला प्रजाति की है, लेकिन यह करेले जैसी कड़वी नहीं होती है. ककोरा या वन करेला एक बेल पर लगने वाली सब्जी है. इसका रंग हरा होता है. जब यह पकती है, तो यह हल्की पीली हो जाती है. पोषक और औषधीय गुणों से भरपूर यह सब्जी बारिश के दिनों में ज्यादा पाई जाती है. इसे कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और राजस्थान आदि राज्यों में उगाया जाता है. पोषक तत्वों की वजह से ककोरा की मांग काफी ज्यादा है. इसके गुणों को देखते हुए कई किसान इसकी खेती करना पसंद कर रहे हैं. आपको बता दें ककोरा की खेती से किसान अच्छी पैदावार प्राप्त कर सकते हैं.
ककोरा शरीर को मजबूत बनाने के साथ-साथ मल्टी विटामिन भी प्रदान करता है. ककेरा को लोग सब्जी नहीं बल्कि औषधि मानते हैं. इस एक सब्जी में विटामिन बी12, विटामिन डी, कैल्शियम, जिंक, कॉपर और मैग्नीशियम जैसे पोषक तत्व भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं. जानकारों के मुताबिक, ककोरा में सेहत के लिए जरूरी हर तत्व पाया जाता है. ककोरा का स्वाद तीखा होता है और यह खाने में बहुत स्वादिष्ट होता है. इसे खाने से जबरदस्त ताकत मिलती है.
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ककोरा गर्म और आर्द्र जलवायु की फसल है. ककोड़ा की खेती उन स्थानों पर सफलतापूर्वक की जाती है जहां औसत वर्षा 1500-2500 मि.ली. होती है और तापमान 20-30 डिग्री सेंटीग्रेड होता है. ककोड़ा की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में उगाई जा सकती है. लेकिन इसकी खेती रेतीली जमीन में अच्छी होती है जिसमें जल निकास की उचित व्यवस्था हो. इसके साथ ही मिट्टी का पी.एच. मान 6-7 के बीच होना चाहिए. इसकी फसल जायद या खरीफ मौसम में लगाई जाती है. यह फसल ग्रीष्मकालीन उपज के लिए जनवरी से फरवरी माह में मैदानी इलाकों में लगाई जाती है. खरीफ मौसम में इसकी फसल जून से जुलाई माह में लगाई जाती है. इसे कंदों या फिर कलमों द्वारा भी लगाया जाता है.
ककोरा का उत्पादन बढ़ाने के लिए जरूरी है कि जब फल के आकार बड़े हो जाएं तो उन्हें 2 से 3 दिन के अंतराल पर तोड़ लेना चाहिए. इससे उत्पादन में बढ़त होती है. नए फल जल्दी लगते हैं. इसलिए जरूरी है कि करोरा की तुड़ाई समय-समय पर करनी चाहिए. अधिक उपज प्राप्त करने के लिए ककोरा के बेल को बांस या सूखी लकड़ी से सहारा देना चाहिए. बेल को सहारा देने से पौधों की वृद्धि अच्छी होती है. बीज के माध्यम से उत्पादित करने पर प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल कोको की उपज प्राप्त की जा सकती है. वहीं भूमिगत कंद से प्रति हेक्टेयर लगभग 40 से 50 क्विंटल ककोरा प्राप्त होता है. यानी अगर आप इसके खेती कंद के द्वारा करते हैं तो इसका असर उत्पादन पर पड़ता है. जिससे किसानों को मुनाफा हो सकता है.
ककोरा की खेती से अधिक उपज प्राप्त करने के लिए किसान अक्सर रासायनिक खादों का इस्तेमाल करते हैं. जिसका असर ना केवल उत्पादन पर पड़ता है बल्कि गुणवत्ता पर भी दिखाई देता है. ऐसे में फसल उत्पादन को बढ़ाने के लिए किसान अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद का इस्तेमाल 200 से 250 प्रति क्विंटल की दर से कर सकते हैं.
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