झारखंड के पलामू जिले में आज भी सदियों पुराना बार्टर सिस्टम चलता है. जी हां... हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यहां पर आज भी खेत में मजदूरी के तौर पर पैसे नहीं आलू दिए जाते हैं. मामला पलामू जिले के चैनपुर प्रखंड का है. पलामू जिले का यह क्षेत्र बिहार की सीमा से सटा हुआ है. यहां से काफी संख्या में महिला कृषि मजदूरी करने के लिए खेतों में काम करने के लिए बिहार के डेहरी ओन सोन इलाके में जाते हैं. जहां से मजदूरी के तौर पर महिलाओं को आलू दिए जाते हैंं, जिसे वो लेकर अपने घर आती हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक चैनपुर प्रखंड के बरांव गांव और इसके आस-पास के गांव की महिलाएं कृषि मजदूरी करने के लिए डेढ़ सप्ताह के लिए तक डेहरी ऑन सोन के इलाके में जाती है. यह महिलाएं आम तौर पर फरवरी मार्च के महीने में जाती हैं, जो आलू की खुदाई करने का सीजन होता है. इस समय अधिकांश मजदूर आलू निकालने का काम करते हैं. हालांकि दक्षिणी बिहार के इस इलाके में बार्टर प्रथा कोई नई बात नहीं है. यहां पर खेत में कार्य करने वाले मजदूरों को फसल की कटाई के बाद उसका एक तय हिस्सा दिया जाता है.
हर साल काफी संख्या में महिलाएं काम करने के लिए जाती हैं, इस साल महिलाओं की संख्या अधिक है. झारखंड में इस साल पड़ा सूखा इसके पीछे की वजह बताई जा रही है. बिहार से काम करके लौटी महिलाओं ने बताया कि वो प्रत्येक साल को मार्च के महीने में बिहार जाती है, जब वहां पर आलू निकालने का सीजन होता है. यह ऐसा समय होता है जब हमारे पास झारखंड में कोई काम नहीं होता है. इसलिए हम बिहार चले जाते हैं. इस साल बिहार जाने वाले महिलाओं की संख्या अधिक थी क्योंकि सूखे के कारण स्थिति और खराब हुई है.
महिलाओं को अपने साथ ले जाने वाले एजेंट मुंशी चौधरी बताते हैं कि आलू के खेत में मजदूरी करने वाली महिलाओं को बेहद कम दिनों के लिए काम मिलता है. महिलाएं सात या नौ दिनों तक बिहार में रहकर काम करती है. महिलाओं को मजदूरी के तौर पर पैसे नहीं मिलते हैं, बल्कि यहां पर उन्हें प्रतिदिन 10 से 15 किलोग्राम तक आलू दिया जाता है. इसकी अगर कीमत देखी जाए तो 100 से 150 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी के हिसाब से महिलाओं को काम करना करना पड़ता है, जो सरकार द्वारा गैर कुशल मजदूरों के लिए तय की गई दैनिक मजदूरी से बेहद कम है.
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