Sheep: बकरे से ज्यादा मुनाफा दे रही है ये भेड़, घरेलू बाजार की डिमांड नहीं हो पा रही पूरी

Sheep: बकरे से ज्यादा मुनाफा दे रही है ये भेड़, घरेलू बाजार की डिमांड नहीं हो पा रही पूरी

केन्द्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान (सीआईआरजी), मथुरा के साइंटिस्ट की मानें तो मुजफ्फरनगरी नस्ल की भेड़ का वजन दूसरी नस्ल की भेड़ों से ज्यादा होता है. लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसके शरीर पर ऊन नहीं होती है. ऊन होती तो है लेकिन उसकी क्वालिटी इतनी अच्छी नहीं होती है कि वो गलीचा बनाने में काम आ सके.  

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Sheep: बकरे से ज्यादा मुनाफा दे रही है ये भेड़, घरेलू बाजार की डिमांड नहीं हो पा रही पूरीयूपी की इस भेड़ को ऊन नहीं मीट के लिए पाला जाता है. फोटो क्रेडिट- किसान तक

मीट के लिए सबसे पहला नाम किसी का आता है तो वो है बकरा. यही वजह है कि आज बकरे-बकरी दूध से ज्यादा मीट के लिए पाले जाते हैं. जब चाहें बाजार में नकद बिक जाते हैं. एक्सपोर्ट भी होते हैं. लेकिन देश में एक ऐसी भी भेड़ है जो बकरे से ज्यादा मुनाफा दे रही है. एक्सपोर्ट तो छोड़िए घरेलू बाजार में ही डिमांड पूरी नहीं हो पा रही है. आमतौर पर भेड़ की पहचान ऊन से की जाती है. माना भी यही जाता है कि भेड़ पालन ऊन के लिए होता है. लेकिन ऐसा नहीं है. मुजफ्फरनगरी भेड़ को उसकी ऊन नहीं मीट के लिए पाला जाता है.

 दक्षिण भारत के कुछ राज्यों समेत कश्मीर और हिमाचल प्रदेश आदि ठंडे इलाकों में इसके मीट की बहुत डिमांड रहती है. देश में भेड़ों की 44 नस्ले पाली जाती हैं. लेकिन इन सबके बीच ये एक खास ऐसी नस्ल है जो मीट के लिए पाली और पसंद की जाती है. 

चार राज्यों में खास तौर पर पसंद की जाती है मुजफ्फरनगरी

सीआईआरजी के प्रिंसीपल साइंटिस्ट डॉ. गोपाल दास ने किसान तक को बताया कि मुजफ्फरनगरी भेड़ के मीट में चिकनाई (वसा) बहुत होती है. जिसके चलते हमारे देश के ठंडे इलाके हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड में मुजफ्फरनगरी भेड़ के मीट को बहुत पसंद किया जाता है. इसके अलावा आंध्रा प्रदेश में क्योंकि बिरयानी का चलन काफी है तो चिकने मीट के लिए भी इसी भेड़ के मीट की डिमांड रहती है. जानकार बताते हैं कि चिकने मीट की बिरयानी अच्छी बनती है. 

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दूसरी भेड़ों से इस तरह अलग है मुजफ्फरनगरी

डॉ. गोपाल दास बताते हैं कि राजस्थान में बड़ी संख्या में भेड़ पाली जाती हैं. लेकिन वहां पलने वाली भेड़ और मुजफ्फरनगरी भेड़ में खासा फर्क है. दूसरी नस्ल की जो भेड़ हैं उनकी ऊन बहुत अच्छी होती है. जबकि मुजफ्फरनगरी भेड़ की ऊन रफ होती है. जैसे ऊन के रेशे की मोटाई 30 माइक्रोन होनी चाहिए. जबकि मुजफ्फरनगरी के ऊन के रेशे की मोटाई 40 माइक्रोन है. गलीचे के लिए भी कोई बहुत बढ़िया ऊन नहीं मानी जाती है.

मुजफ्फरनगरी भेड़ की यह होती है पहचान 

डॉ. गोपाल दास ने बताया कि अगर आप मुजफ्फरनगरी भेड़ खरीद रहे हैं तो उसकी पहचान कुछ खास तरीकों से की जा सकती है. देखने में इसका रंग एकदम सफेद होता है. पूंछ लम्बी होती है. 10 फीसद मामलों में तो इसकी पूंछ जमीन को छूती है. कान लम्बे होते हैं. नाक देखने में रोमन होती है. मुजफ्फरनगर के अलावा बिजनौर, मेरठ और उससे लगे इलाकों में खासतौर पर पाई जाती है. 

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हार्ड नस्ल है तो मृत्यु दर भी कम है 

डॉ. गोपाल दास ने यह भी बताया कि मुजफ्फरनगरी भेड़ हार्ड नस्ल की मानी जाती है. इसीलिए इस नस्ल में मृत्यु दर सिर्फ 2 फीसद ही है. जबकि दूसरी नस्ल की भेड़ों में इससे कहीं ज्याादा है. इसके बच्चे 4 किलो तक के होते हैं. जबकि दूसरी नस्ल के बच्चे 3.5 किलो तक के होते हैं. अन्य नस्ल की भेड़ों से हर साल 2.5 से 3 किलो ऊन मिलती है. जबकि मुजफ्फरनगरी भेड़ 1.2 किलो से लेकर 1.4 किलो तक ही ऊन हर साल देती है.

6 महीने में मुजफ्फरनगरी का वजन 26 किलो हो जाता है. जबकि अन्ये नस्ल में 22 या 23 किलो वजन होता है. 12 महीने की मुजफ्फरनगरी का वजन 36 से 37 किलो तक हो जाता है. वहीं अन्य नस्ल की भेड़ इस उम्र पर सिर्फ 32 से 33 किलो वजन तक ही पहुंच पाती हैं. इसके बच्चे जल्दी‍ बड़े होते हैं. दूसरी नस्लों की तुलना में मुजफ्फरनगरी भेड़ भी बकरियों के साथ पाली जा सकती है. 

 

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