
गेहूं के हमशक्ल दुश्मन की पहचान और खतरा चाहे पंजाब-हरियाणा हो या उत्तर प्रदेश-बिहार, रबी सीजन में गेहूं किसानों की उम्मीदों का केंद्र होता है. लेकिन, इन दिनों खेतों में एक ऐसा 'छिपा हुआ दुश्मन' पैर पसार रहा है, जो आपकी मेहनत और मुनाफे को आधा कर सकता है. इसे वैज्ञानिक भाषा में 'फेलेरिस माइनर' कहते हैं, लेकिन गांव-देहात में इसे 'गेहूं का मामा', 'गुल्ली डंडा', 'बन गेहूं' या 'मंडूसी' के नाम से जाना जाता है.
इस खरपतवार की सबसे बड़ी खासियत ही किसानों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है—इसके पौधे शुरुआती अवस्था में बिल्कुल गेहूं के पौधों जैसे दिखते हैं. जब तक इसमें फूल नहीं आते, तब तक एक अनुभवी किसान भी गेहूं और इस खरपतवार में अंतर नहीं कर पाता. पहचाने जाने तक बहुत देर हो चुकी होती है और यह 'कंस मामा' गेहूं के हिस्से की खाद, पानी, धूप और जमीन का पोषण चुरा चुका होता है. कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार, अगर ध्यान से देखा जाए तो इसके तने का निचला हिस्सा हल्का गुलाबी या लाल रंग का होता है, जो इसकी एकमात्र पहचान है.
यह खरपतवार 50 फीसदी तक फसल बर्बाद कर देता है. यह खरपतवार केवल पोषण ही नहीं चुराता, बल्कि उत्पादन पर सीधा डाका डालता है. कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि 'गुल्ली डंडा' गेहूं की पैदावार को 30 से 50 प्रतिशत तक कम कर सकता है. पंजाब के कई किसान इसकी मार झेल चुके हैं. कई बार तो लागत निकालना भी मुश्किल हो जाता है.
किसानों के लिए चिंता का एक बड़ा विषय यह है कि अब यह खरपतवार 'मुंहजोर' हो गया है. वर्षों से एक ही तरह की रासायनिक दवाओं के छिड़काव के कारण इसमें 'हर्बिसाइड रेजिस्टेंस' (दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता) विकसित हो गई है. इसका मतलब यह है कि अब महंगी से महंगी दवा छिड़कने पर भी यह मरता नहीं है और खेत में डटा रहता है.
जिन खेतों में धान के तुरंत बाद गेहूं बोया जाता है, वहां इसकी समस्या और भी गंभीर रूप ले लेती है. किसान इसे हल्के में लेने की भूल करते हैं, जिसका खामियाजा उन्हें फसल कटाई के वक्त भुगतना पड़ता है.
इस 'ढीठ' खरपतवार से निपटने के लिए अब केवल रसायनों पर निर्भर रहना काफी नहीं है, बल्कि 'समेकित प्रबंधन' (Integrated Management) अपनाना जरूरी है. कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो इससे बचाव के लिए किसानों को सबसे पहले फसल चक्र बदलना होगा. एक्सपर्ट सलाह में कहते हैं, गेहूं की बुवाई से पहले खेत में पानी लगाकर खरपतवार उगने दें और फिर जुताई करके उन्हें नष्ट कर दें.
'जीरो टिलेज' तकनीक से बुवाई करना, लंबी किस्म के बीज लगाना और देर से बुवाई होने पर कतारों की दूरी कम करके बीज की मात्रा बढ़ाना कारगर उपाय हैं. यदि खेत में यह खरपतवार बहुत ज्यादा है, तो उसे उखाड़कर जला देना ही बेहतर है ताकि उसके बीज अगले साल के लिए मुसीबत न बनें. रासायनिक उपाय के तौर पर बुवाई के 2-3 दिन के भीतर पेंडामेथलीन और 25-30 दिन पर आइसो प्रोटोन का प्रयोग करें. ध्यान रखें, छिड़काव सुबह के वक्त ओस में न करें, बल्कि धूप निकलने पर सूखे पौधों पर करें ताकि दवा का पूरा असर हो. सही प्रबंधन अपनाकर ही किसान बंपर उपज ले सकते हैं.