पिछले कुछ दिनों से देश में किसान विरोध प्रदर्शन का ही शोर है. तीन साल पहले जब देश कोविड-19 जैसी महामारी से जूझ रहा था तो उस समय भी इसी तरह से किसानों से प्रदर्शन कर अपने हक के लिए आवाज उठाई थी. आज जब पूरा देश लोकसभा चुनावों का इंतजार कर रहा है तो ठीक उससे पहले एक बार फिर किसान सड़कों पर आ गए हैं. पंजाब और हरियाणा के किसान इस प्रदर्शन में शामिल हैं और वो एक बार फिर मिनिमम सपोर्ट प्राइस यानी एमएसपी पर अड़े हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्यों सिर्फ पंजाब के किसान ही एमएसपी की मांग कर रहे हैं और क्या सरकार उनकी मांगों को पूरा करने में सक्षम है.
साल 2021 में किसानों के प्रदर्शन के बाद केंद्र सरकार ने तीन विवादित कृषि कानूनों को वापस ले लिया था. स्वामीनाथन आयोग के तहत एमएसपी की गारंटी प्रदर्शनकारी किसानों की प्राथमिक मांग है. एमएसपी वह न्यूनतम मूल्य है जो सरकार की तरफ से तब भुगतान किया जाता है जब वह किसानों से कोई भी फसल खरीदती है ताकि उन्हें मूल्य में उतार-चढ़ाव से बचाया जा सके. इसकी घोषणा राज्य द्वारा संचालित कृषि आयोग द्वारा वार्षिक आधार पर लगभग 22 फसलों की गणना के बाद की जाती है.
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भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) - जो मुख्य सरकारी अनाज खरीद एजेंसी है - इन कीमतों पर बड़े पैमाने पर केवल धान और गेहूं खरीदती है. एफसीआई फिर इन खाद्यान्नों को गरीबों को अत्यधिक रियायती कीमतों पर बेचती है और उसके बाद नुकसान के हर्जाने के तौर पर केंद्र की तरफ से मुआवजा दिया जाता है. केंद्र हर साल जिन फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करता है, उनमें सात अनाज (धान, गेहूं, मक्का, बाजरा, ज्वार रागी और जौ), पांच दालें (चना, अरहर, मूंग, उड़द और मसूर), सात तिलहन (मूंगफली, सोयाबीन, रेपसीड-सरसों, तिल, सूरजमुखी, नाइजर बीज और कुसुम) और चार वाणिज्यिक फसलें (गन्ना, कपास, खोपरा और जूट) शामिल हैं.
एमएसपी को वैध बनाना पंजाब और हरियाणा के किसानों की लंबे समय से लंबित मांग है. वे आमतौर पर इस तंत्र के तहत खरीद के सबसे बड़े लाभार्थी हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पंजाब के किसान गेहूं और धान की एमएसपी-आधारित खरीद के मुख्य लाभार्थी बने हुए हैं. साल 2022-23 में रबी मार्केटिंग सीजन में पंजाब को गेहूं के लिए 19,300 करोड़ रुपए से अधिक का एमएसपी आउटफ्लो देखा गया. साल 2021-22 के खरीफ खरीद सीजन में धान के लिए 36,708 करोड़ रुपए का एमएसपी आउटफ्लो देखा गया.
पिछले आंकड़ों के मुताबिक, पंजाब और हरियाणा के किसान अपने अनाज उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा सरकारी खरीद प्रणाली के तहत बेचते हैं. इसके अलावा, चूंकि पंजाब और हरियाणा के किसानों को सन् 1960-70 के दशक में हरित क्रांति से काफी फायदा हुआ, इसलिए उन्हें कृषि से अधिक रिटर्न की उम्मीदें हैं. ऐसा दक्षिण भारत में मौजूद उनके कुछ समकक्षों का मानना है.
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एमएसपी एक प्रशासनिक तंत्र है, इसलिए किसानों को अक्सर मांग और आपूर्ति की स्थिति के आधार पर कीमतें प्राप्त होती हैं. परंपरागत रूप से, गेहूं और धान दो फसलें हैं जिनके लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुविधाजनक बनाया गया है. लेकिन एमएसपी के लिए कानूनी समर्थन के बिना, इन राज्यों में किसानों को डर है कि उन्हें अपनी फसलों के लिए लाभकारी मूल्य नहीं मिलेगा, खासकर जब बाजार की कीमतें एमएसपी से नीचे गिर जाती हैं.
किसानों के दृष्टिकोण से, एमएसपी की सुरक्षा उन्हें बाजार मूल्य में उतार-चढ़ाव और कृषि उत्पादन में अनिश्चितताओं से बचाने में मदद करती है. यह छोटे किसानों के लिए खासतौपर पर फायदेमंद है जो अपनी प्राथमिक आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं और फसल की बुआई और कटाई में महीनों बिताते हैं. लेकिन सरकार और कई विशेषज्ञों का कहना है कि सीमित खरीद बुनियादी ढांचे, स्टॉक की संभावित बर्बादी, विकृत फसल पैटर्न और प्रभावी बाजार पहुंच की कमी जैसी कई बाधाओं के कारण एमएसपी को वैध बनाना एक खराब फैसला हो सकता है. हालांकि केंद्र ने किसानों को आश्वासन दिया है कि वह एमएसपी मुद्दे पर 'संरचित' चर्चा करने के लिए तैयार है.
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