
उत्तर प्रदेश के बांदा और चित्रकूट के बीच बने बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे के दोनों तरफ तालाब ही तालाब नजर आते हैं. इसके पीछे सरकार और समाज की ईमानदार कोशिश दिखती है. मकसद है मानसून सीजन में, जब आसमान से पानी बरसे तो वह पूरी तरह से बुंदेलखंड को छोड़कर ना चला जाए बल्कि ज्यादा से ज्यादा मात्रा में यहीं के तालाबों में ठहर जाए. इसके पीछे एक कहानी है.असल में बुंदेलखंड को उसी पानी पर बाकी के दस महीने जीवित रहना होता है. इंसान से लेकर जानवरों और फसलों को उसी तालाब पर निर्भर रहना होता है. यहीं वजह है कि इस इलाके में तालाबों को जीवित रखने के लिए जो जतन किए जा रहे हैं, वो विदेशों में शोध का विषय बन रहे हैं.
बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे को ही देखें, तो उसके दोनों तरफ पानी निकलने का पर्याप्त रास्ता बनाया गया है और फिर एक्सप्रेसवे के नीचे झांकने पर पता चलता है कि सड़क से निकला पानी एक चौड़े से नाले में जाकर मिलता है. यानी जब बारिश हो, तो एक्सप्रेसवे का पूरा पानी एक नाले में पहुंचे और उससे होते हुए तालाबों तक पहुंच जाए, इसका पूरा ध्यान रखा गया है. ये तकनीक पुरानी है, लेकिन रवायत नई है, जो पिछले कुछ वर्षों से बुंदेलखंड समेत देश में कई जगहों पर धरातल पर नजर आ रही है. जब गांव-गांव से तालाब लुप्त होने लगे हैं. जब तालाबों को अनावश्यक मानकर लोग इसे समतल करने में जुटे हैं. तब बुंदेलखंड के लोग अपने बेटे-बेटियों की शादी रोककर पहले तालाब बनवाने में जुटे हैं. ये त्याग कितना बड़ा है, इसे यूं समझ सकते हैं कि जब लोग अपनी जमीन का एक इंच भी खाली छोड़ने को तैयार नहीं होते, तब यहां का हर किसान अपने खेत का एक हिस्सा तालाब के नाम कर देता है.
दरअसल बुंदेलखंड समझ चुका है कि अगर खेत में तालाब बनवा लिया तो बेटे-बेटी की शादी भी हो जाएगी, परिवार का पेट भी भरेगा, लेकिन अगर तालाब नहीं बनवाया तो आत्महत्या के अलावा कोई चारा नहीं बचेगा. बुंदेलखंड दशकों से तालाब के लिए तड़प रहा है. नहरों का पानी ना मिलने से फसलें बर्बाद हुईं और बरसात का पानी ग्राउंड वॉटर तक ना पहुंचने से विपन्नता आई. इसे इस क्षेत्र के समाजसेवी पुष्पेंद्र भाई ने बुंदेलखंड को तालाबों से भरते करीब से देखा है.
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20 अप्रैल को जब ‘किसान तक’ की टीम बांदा पहुंची, तो हाफ बाजू का कुर्ता और पाजामा पहने पुष्पेंद्र भाई बहुत ही गर्मजोशी से मिले. उन्होंने अपने जीवन के साढ़े तीन दशक बांदा की समस्याओं को सुलझाने में दिए हैं. इसमें से भी सबसे ज्यादा समय ‘शानदार तालाबों’ को दिया है. जिसकी चर्चा करते हुए, उनकी आंखों में चमक आ जाती है. पुष्पेंद्र भाई बताते हैं कि बांदा पर सूखे का जब दाग लगा, तो उन्होंने ‘अपना तालाब’ की मुहिम चलाई. पहले नारा दिया जाता था- ‘तालाब बचाओ, जीवन बचाओ’, जो सुनने वाले के सिर के ऊपर से निकल जाता था. कोई समझ नहीं सकता था कि तालाब बचाने से जीवन कैसे बचेगा. इसे बदलकर उन्होंने नारा दिया- ‘तालाब बनवाओ, पैसे कमाओ’ और इसका गणित भी लोगों को समझाया. लोगों को बताया कि दस अपंग बच्चा होने से अच्छा है कि एक ही अपंग हो. अपने खेत के दसवें हिस्से में तालाब बनवाओ. उस अपंग बच्चे से बाकी नौ बच्चे सेहतमंद हो जाएंगे. पैदावार बढ़ जाएगी और तालाब से हुए नुकसान की भरपाई भी हो जाएगी. ये बात लोगों की समझ में आ गई. लोगों ने तालाब बनवाए. इसका फायदा दिखने लगा तो बाकी लोगों ने भी तालाब बनवाए और इस मुहिम ने इतना रंग पकड़ा कि उत्तर प्रदेश सरकार के अधिकारियों ने उनके घर पर बैठकर ‘खेत-तालाब योजना’ का खाका खींचा और इसे पूरे प्रदेश में लागू किया.
सरकार ने तालाब खुदवाने में लोगों की मदद की, लेकिन अपनी बेशकीमती जमीन देकर जिन्होंने तालाब बनाया, चार से पांच लाख रुपये की जमीन तालाब में दे दी, उन्होंने उससे भी बड़ी कुर्बानी दी है. पुष्पेंद्र भाई के मुताबिक खेत-तालाब योजना से बुंदेलखंड में 25000 तालाब बन गए, लेकिन एक सच ये भी है कि इस योजना से ढाई से तीन करोड़ घन लीटर पानी की व्यवस्था हुई, जबकि इससे पहले 18 करोड़ घन लीटर पानी की व्यवस्था बिना योजना के ही हो चुकी थी.
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बुंदेलखंड के उत्तर में यमुना, पूर्व में केन, पश्चिम में बेतवा और पाहुज बड़ी नदियां हैं. एलपी चौरसिया और डीसी झरिया की स्टडी के मुताबिक गर्मियों में यहां 45 डिग्री तक पारा पहुंच जाता है और सर्दियों में 5 डिग्री सेल्सियस तक लुढ़क जाता है, लेकिन आमतौर पर यहां का मौसम आरामदायक होता है. चारों ओर से यह क्षेत्र पर्वतों से घिरा है और नदियां बहती हैं. इस क्षेत्र का ढलान उत्तर पूर्व की ओर है. यहां की लाल और काली मिट्टी बहुत ही उर्वर मानी जाती है. हर साल 1000 मिलीमीटर बारिश होती है, जो देश के औसत के बराबर है. किंतु असल संकट है मूसलाधार बारिश. बुंदेलखंड में 90 परसेंट बारिश जुलाई और अगस्त में होती है. बारिश इतनी तेज होती है कि ग्राउंड वॉटर के रिचार्ज होने का मौका ही नहीं मिलता. वह तेजी से बुंदेलखंड की धरती को भिगोती हुई नहरों में जा मिलती है. सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड (CGWB) की रिपोर्ट कहती है कि यहां पर होने वाली बारिश का 84.72 परसेंट पानी सतह से ही बह जाता है, जबकि 15.28 परसेंट पानी ही ग्राउंड वॉटर तक पहुंचता है.
पुष्पेंद्र भाई कहते हैं कि इस समस्या का एक ही निदान है और वो ये है कि बरसात के पानी को हम तालाबों में रोक लें. इस तथ्य को समझने के बाद पूरे बुंदेलखंड में तालाब के प्रति वातावरण बना. शानदार तालाब बनाए गए. शानदार तालाब की खासियत ये होती है कि पूरे खेत का पानी निकल कर उसमें जाता हो, उसकी लंबाई चौड़ाई गहराई खेत के अनुपात में हो और यदि वह पेड़ों के बीच में हो तो और भी शानदार रहता है, क्योंकि उसका पानी सदा टिका रहता है. पूरे साल भर काम करता है.’
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पुष्पेंद्र भाई कहते हैं कि ‘साल 2000 में मेरा ध्यान इस तरफ गया. मैंने एक खबर पढ़ी थी, आबरू के मोल पानी. यह कहानी है बुंदेलखंड के महोबा की. यहां एक जयपुर कस्बा है, वहां पर सूखे के वर्ष में पानी का संकट बढ़ा. एक महिला पानी बहुत दूर से लाती थी और पूरे दिन में परिश्रम करके भी पर्याप्त पानी नहीं भर पाती थी. वह थक हारकर पड़ोसी के जेट पंप वाले मकान में चली गई, ताकि वहां से आसानी से पानी मिल सके. वहां उसके साथ छेड़छाड़ हुई. फिर कुछ दिन बाद गई तो उसके साथ दोबारा छेड़छाड़ हुई. तो यह खबर अखबारों की नजर में आ गई और वह खबर जब छपी, आबरू को मोल पानी, तो हमारे अंदर बहुत बड़ा बदलाव आया. हमें लगा कि यह काम तो अब करना चाहिए, क्योंकि यह इज्जत का सवाल है.’
लोग पानी का मोल समझने लगे थे और ये पता चलता है लोगों के उत्साह से. तालाबों को पुनर्जीवन देने का काम चरखारी से शुरू हुआ, जिसे तालाबों का कस्बा कहा जाता था. वहां 400 वर्ष पुराना तालाब सूख रहा था. विडंबना ये है कि उस तालाब का नाम ‘सागर तालाब’ था. उस तालाब के पुनर्निर्माण का दिन तय किया गया और उस दिन उम्मीद से कई गुना, चार हजार लोग फावड़ा लेकर उतर पड़े. स्थानीय लोगों के अनुसार, इसके बाद 600 साल पुराने ‘कीरत सागर’ तालाब को दोबारा जीवन देने के लिए करीब 23 हजार लोग प्रतिदिन आते थे. इस अभियान में खुद जिलाधिकारी भी सम्मिलित हुए.
बुंदेलखंड में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश दोनों प्रदेशों के जिले आते हैं. एक स्टडी बताती है कि वर्ष 2002-03 पूरे बुंदेलखंड के लिए बहुत ही कठिन समय था. उस वर्ष बुंदेलखंड में आने वाले मध्यप्रदेश के छह जिलों और उत्तर प्रदेश के तीन जिलों में भीषण सूखा पड़ा था. खास तौर पर यूपी के बांदा, हमीरपुर और जालौन में त्राहिमाम मच गया, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि ये बुंदेलखंड की बदकिस्मती की ये शुरुआत भर थी. यूपी के हिस्से में आने वाले बुंदेलखंड में 2004-05 में भी 25 परसेंट कम बारिश हुई. 2006-07 में तो 43 परसेंट कम बारिश हुई और 2007-08 में 56 परसेंट कम बारिश हुई. इससे विशेष तौर पर महोबा, झांसी और चित्रकूट में हाहाकार मच गया.
15 जून 2007 को सरकार की ओर से जारी रिकॉर्ड बताते हैं कि 19वीं और 20वीं शताब्दी में बुंदेलखंड में सिर्फ 12 वर्ष ही सूखा पड़ा, लेकिन यहां के लोग बताते हैं कि इसका असर इतना वीभत्स था कि बुंदेलखंड दशकों पीछे चला गया. खेत-खलिहान वीरान पड़ गए, दो जून की रोटी के लाले पड़ गए. नई सदी की शुरुआत से ही पलायन का दौर शुरू हो गया था, लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज आंकड़ों के मुताबिक सूखी धरती ने ऐसा कहर बरपाया कि 400 किसानों ने खुदकुशी कर ली.
वॉटर ऐड इंडिया के पेपर के मुताबिक 2003-2007 में सूखे के बाद 2008 के मई जून में 5000 टैंकर लगाने पड़े, ताकि लोगों को पेटभर पानी मिल सके. यही दौर था जब फटी धरती की तस्वीरें अखबारों की सुर्खियां बनने लगीं. बुंदेलखंड की बर्बादी पर स्टडी होने लगी. वर्ष 2008 में यूपी के बुंदेलखंड के 131 गांवों की स्टडी में पाया गया कि यहां सिर्फ 7 परसेंट गांवों में घरेलू जरूरतों को पूरा करने लायक पानी है. 60 परसेंट से ज्यादा गांवों में सिर्फ एक महीने के लिए पीने का पानी उपलब्ध था. पूरे बुंदेलखंड में 20 लीटर पानी के लिए महिलाएं 4 से 5 घंटे प्रतिदिन मेहनत किया करती थीं. पुष्पेंद्र भाई को जिस ‘आबरू के मोल पानी’ खबर ने झकझोरा था, वो इसी दौर का था.
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पुष्पेंद्र भाई बताते हैं कि 2013 में जब उन्होंने एक अभियान शुरू किया, ‘अपना तालाब’ अभियान, तब सवाल था कि तालाब बने कैसे. समाज में समझ नहीं थी, राज के पास कोई योजना नहीं. तो फिर जिला प्रशासन के साथ बैठ कर सभी ने इसकी चर्चा की. तब महोबा जनपद सबसे ज्यादा क्राइसिस वाला जनपद था. सभी को लगता था कि जहां ज्यादा संकट है, पहले उसको ठीक करें. अगर उसको ठीक कर ले गए तो फिर बाकी अपने आप से ठीक हो जाएंगे.
पुष्पेंद्र भाई के मुताबिक ‘हुआ ये कि वहां पर बहुत सारे पहाड़ हैं, जिन पर लोग खनन करते हैं. मशीनें लगाते हैं. तो हमने वहां पर कई बैठकें कराईं. खनन के ठेकेदारों से कहा कि भाई आप लोग जब पूरा खनन करके पर्यावरण को असंतुलित कर रहे हो तो तुम्हारी जिम्मेदारी बनती है कि कुछ समय संतुलन बनाने में दो. तो फिर ये तय हुआ कि वो खनन की मशीन एक हफ्ते के लिए किसानों को देंगे. किसान उसमें डीजल भरवाएगा और तालाब बनावाएगा. ये प्लान काम कर गया. जिलाधिकारी तक हमारे साथ जाते थे, धूप और गर्मी में जाते थे. किसान को इस बात की भी प्रसन्नता होती थी कि चलो कलेक्टर साहब मेरे घर में आएंगे. मेरे खेत में आएंगे और जब तालाब के काम का शुभारंभ करते तो किसान कलेक्टर का तिलक करता था. वह कहता था कि आप जिलाधिकारी हो. आप जब इस काम को करोगे तो आपका मान बढ़ेगा.’
दरअसल तालाब सिर्फ अपने क्षेत्रफल में होने वाली बारिश के पानी से पूरा नहीं भरता. उसे बड़ा दायरा चाहिए होता है. जितना बड़ा तालाब, उतना बड़ा दायरा. जब बारिश होती है तो तालाब के आसपास का पूरा पानी बहकर तालाब में आता है और जब पूरा तालाब भरता है, तभी उसमें सालभर पानी टिका रहता है. एक बड़े क्षेत्रफल से पानी का बहाव तालाब की ओर हो, इसका एक कुदरती रास्ता बना होता है. अंधाधुंध होते विकास ने उन्हीं रास्तों को रोका. सागर जैसे तालाब को सूखते देख चुके बुंदेलखंड के लोग बताते हैं कि सड़कें बनीं, मकान बने, लेकिन बहुत सारे ऐसे बने हैं जो पानी के बहाव को रोकते हैं. तालाब तक पहुंचने वाले पानी के रास्ते से छेड़छाड़ हुई, जब चकबंदी हुई, किसी मायने में अच्छी भी थी, तो जो किसानों ने मेड़ बनाए थे, वह सब के सब नष्ट हो गए. पानी को नीचे जाने या तालाब तक पहुंचाने वाले रास्तों की अनदेखी की गई. रेलवे लाइन, सड़कें हों या स्कूल और कॉलोनियां, सबने पानी का रास्ता रोका. इससे तालाब सूखे, ग्राउंड वॉटर पाताल में चला गया और बुंदेलखंड में हाहाकार मच गया.
बुंदेलखंड में जलस्तर की स्थिति को लेकर तमाम शोधों में कोलाहल नजर आता है, जिसे खुद बुंदेलखंड पसंद नहीं करता. इस क्षेत्र पर सूखे का दाग दशकों से चस्पा है, लेकिन जिन तालाबों का तिरस्कार किया जाता रहा, अब वहीं तारणहार बनते नजर आ रहे हैं. ‘किसान तक’ ने तमाम स्रोतों से जो आंकड़े एकत्र किए, वो एक शुभ संकेत की तरह हैं.
बांदा के डीएम रह चुके डॉ हीरा लाल ने 2019 में कुआं और सरकारी नलों के चारों तरफ खंती-खुदाई अभियान चलाया था. बांदा के 470 गांवों में नलों के आसपास 2443 खंती-खुदी और 3930 किलो लीटर पानी इकट्ठा करने की नई जगह बनी. उस समय सरकारी सर्वे में पाया गया कि विभिन्न वजहों से बांदा का भूजल स्तर सवा साल में करीब 1.34 मीटर ऊपर आया है. यह बुंदेलखंड की एक बड़ी उपलब्धि थी, जिसे तमाम प्रयासों ने आगे बढ़ाया.
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यूपी के भूजल विभाग की 2022 की रिपोर्ट बताती है कि बुंदेलखंड के कुल 47 विकासखंडों में से 21 विकासखंड पूरी तरह से सुरक्षि त श्रेणी में हैं. महोबा के पनवाड़ी और जैतपुर को छोड़कर अन्य विकासखंड, भूजल के अतिदोहन वाली श्रेणी में शामिल नहीं हैं. सबसे बेहतर स्थिति में जालौन जिला है. इसके सभी 9 विकासखंड सुरक्षित श्रेणी में हैं. झांसी, बांदा के 4-4 विकासखंड, हमीरपुर के 3 और चित्रकूट का 1 विकासखंड भूजल दोहन के मानकों पर खरा उतरा है. यानी विभिन्न प्रयासों से आधा बुंदेलखंड सुरक्षित हो चुका है, लेकिन यही रिपोर्ट ये भी बताती है कि उत्तर प्रदेश में ही कई नए बुंदेलखंड तैयार हो रहे हैं और अगर वो नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी.
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यूपी के भूजल विभाग की 2022 की रिपोर्ट ही बताती है कि जिन 15 जिलों में भूजल का अतरिक्त दोहन हुआ है, उनमें अधिकांश जिले पश्चिमी क्षेत्र के हैं. आगरा जिले में एत्मादपुर, फतेहाबाद, बिचपुरी, खंदौली, सैंया, फतेहपुर सीकरी, बरौली अहीर, अकोला और शम्साबाद में भूजल लगातार नीचे जा रहा है. आगरा के बाह और जैतपुर कलां विकासखंडों को क्रिआटिकल श्रेणी में पाया गया है. जबकि पिनहट, अछनेरा, खैरागढ़ और जगनेर को सेमी क्रिटिकल श्रेणी में पाया गया है. बुलंदशहर के 6, फिरोजाबाद के 5, सहारनपुर के 4, बागपत, हाथरस, गाजियाबाद और शामली के 3-3 विकासखंडों पर बुंदेलखंड जैसा खतरा मंडराने लगा है. बुलंदशहर, संभल हापुड़, हाथरस, अमरोहा, मथुरा, मेरठ, मुजफ्फरनगर और बदायूं का बड़ा हिस्सा क्रिटिकल श्रेणी में पाया गया है. यानी अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश को तालाब क्रांति की जरूरत है, ताकि इन्हें बुंदेलखंड जैसी स्थिति से बचाया जा सके.
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