महंगाई के इस जमाने में बिना कुछ खर्च किए भला खेती कैसे हो सकती है. लेकिन, सरकार ही ऐसा मानती है. इसीलिए तो नाम रखा गया है जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग, जिसे अंग्रेजी में ZBNF कहते हैं. जबकि, खेती में अगर बाहर से कोई भी इनपुट न आए फिर भी मैन पावर तो लगेगी ही. अब अगर केमिकल फार्मिंग वाली खेती से किसानों को बाहर निकालकर प्राकृतिक खेती की ओर लाना है तो उन्हें कुछ आर्थिक मदद देनी होगी. सरकार पैसा देती भी है. लेकिन यह रकम इतनी कम है कि किसानों को ऐसी खेती की तरफ खींच नहीं पाई है. रकम कम इसलिए है क्योंकि सरकार ने योजना के पहले ही जीरो लिखा हुआ है. सूत्रों का कहना है कि केंद्र सरकार द्वारा बनाई गई एमएसपी कमेटी के कुछ सदस्यों ने योजना के नाम से जीरो हटाने की सिफारिश की है. यह कमेटी प्राकृतिक खेती पर भी काम कर रही है.
बताया जा रहा है कि कुछ सदस्य चाहते हैं कि इस योजना से जीरो हटे. इसके बाद ऐसी खेती करने वाले किसानों को इंसेंटिव दिया जाए. ताकि प्राकृतिक खेती की रफ्तार बढ़े. हालांकि, सरकार इस मसले पर अभी अंतिम फैसले पर नहीं पहुंची है. इसके पैरोकारों का कहना है कि जब केमिकल वाली खेती करने वाले किसानों के लिए सरकार 2.5 लाख करोड़ रुपये की उर्वरक सब्सिडी दे सकती है तो क्या नेचुरल खेती करने वालों को इंसेंटिव नहीं दे सकती? यह सब हो सकता है लेकिन पहले जीरो हटा दिया जाए ताकि लोगों को यह लगे कि इस खेती में भी कुछ खर्च लगता है. जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग मूल रूप से महाराष्ट्र के रहने वाले सुभाष पालेकर ने विकसित की है.
प्राकृतिक और जैविक दोनों खेती को लेकर कृषि वैज्ञानिकों दो मत हैं. ज्यादातर वैज्ञानिक जैविक खेती को मानते हैं और प्राकृतिक खेती को मन से सपोर्ट नहीं करते. हालांकि, दोनों ही तरह की खेती केमिकल से फ्री होती हैं. दोनों में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल नहीं होती. भी प्राकृतिक और जैविक खेती में बारीक अंतर होता है. जैविक खेती का दायरा करीब 40 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया है. क्योंकि इसके लिए किसानों को अच्छी खासी रकम मिलती है. लेकिन प्राकृतिक खेती के मामले में ऐसा नहीं है.
अब तक 10 लाख हेक्टेयर क्षेत्र भी इसके तहत नहीं आ सका है. क्योंकि, इसके लिए सरकार मदद बहुत कम देती है. जब जीरो बजट पहले से लिखा हुआ है तो ज्यादा मदद क्यों देगी? पिछले साल तक आठ राज्यों में जीरो बजट प्राकृतिक खेती के तहत सिर्फ 4.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र कवर हुआ था. अब दो दिन पहले केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने दावा किया कि पिछले साल भर में 17 राज्यों में 4.78 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र प्राकृतिक खेती के तहत लाया गया है.
प्राकृतिक खेती बिना किसी खास देखभाल के प्रकृति से ही अपना पोषण प्राप्त करती है. खेती में खेती के लिए कोई भी संसाधन जैसे खाद, बीज, कीटनाशक आदि बाजार से न लाकर उन्हें घर पर ही तैयार किया जाता है. खाद और कीटनाशक देसी गाय के गोबर और मूत्र से बनते हैं. घर पर ही जीवामृत, घन जीवनामृत और बीजामृत बनाकर उसका इस्तेमाल करते हैं. जीरो बजट प्राकृतिक खेती की वकालत करने वाले गुजरात के राज्यपाल आचार्य देवव्रत दावा करते हैं कि एक एकड़ खेत में प्राकृतिक खेती के लिए खाद यानी जीवामृत देसी गाय के एक दिन के गोमूत्र और गोबर से ही तैयार हो सकता है. एक गाय से 30 एकड़ जमीन में प्राकृतिक खेती की जा सकती है.
दूसरी ओर, जैविक खेती में खाद के लिए गोबर की बहुत अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है, जिसके लिए प्रति एकड़ बहुत अधिक पशुओं की जरूरत होती है. जिससे इसमें अधिक श्रम लगता है. जैविक खेती में मिट्टी को जैविक खाद से समृद्ध किया जाता है. अतिरिक्त प्रयास किए जाते हैं. इस खेती में वर्मी कंपोस्ट और गाय के गोबर की खाद का उपयोग किया जाता है. जुताई निराई और अन्य मूलभूत कृषि गतिविधियां लगातार की जाती हैं.
परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत जैविक खेती के लिए किसानों को तीन साल तक 50,000 रुपए प्रति हेक्टेयर के हिसाब से सरकार मदद देती है. इसमें जैव उर्वरकों, जैव कीटनाशकों, जैविक खाद, वर्मी-कम्पोस्ट के लिए 31,000 रुपए (61 प्रतिशत) मिलते हैं. दूसरी ओर, प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (BPKP) के तहत किसानों को 3 साल के लिए 12200 रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मदद दी जाती है.
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