अक्सर जिन गौवंशीय पशुओं को 'आवारा' या 'छुट्टा' कहा जाता है. आवारा पशु' शब्द का प्रयोग अक्सर नकारात्मक अर्थ में किया जाता है और यह जिम्मेदारी से बचता हुआ लगता है. यह सुझाव देता है कि पशु स्वाभाविक रूप से इधर-उधर घूम रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि उन्हें जानबूझकर छोड़ा गया है. इसलिए, यह कहना सही है कि दुधारू पशुओं के मालिक इन उपेक्षित और लावारिस पशुओं को 'आवारा' पुकार कर एक तरह से उन्हें बदनाम करते हैं और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हैं. समस्या की जड़ मानव व्यवहार और पशुधन प्रबंधन की कमियों में है. लेकिन, वे वास्तव में उपेक्षित या लावारिस पशु होते हैं. क्योकि- उन्हें उनके मालिकों द्वारा छोड़ दिया गया है और उनकी देखभाल नहीं की जा रही है.
यह समस्या का एक महत्वपूर्ण पहलू है, क्योंकि यह दर्शाता है कि यह केवल 'आवारा' पशुओं का मुद्दा नहीं है, बल्कि मानव जिम्मेदारी और पशुधन प्रबंधन से भी जुड़ा हुआ है. देश के कई राज्यों में लावारिस पशुओं की समस्या गंभीर रूप लेती जा रही है. खेतों में घुसकर फसलों को नष्ट करने वाले ये गौवंशीय पशु, जिन्हें उनके मालिक दूध उत्पादन में अक्षम होने पर छोड़ देते हैं, किसानों के लिए भारी मुसीबत का सबब बन गए हैं खास बात यह है कि इनमें से कई गाभिन भी होती हैं, जिन्हें किसान फिर से अपना लेते हैं.
पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों में लावारिस मवेशियों की समस्या ने भयावह रूप धारण कर लिया है. गाय और सांड जैसे गौवंशीय पशु खुलेआम घूमते हैं, जिससे फसलें चरने, कृषि भूमि पर चलने और कभी-कभी मानव सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा हो जाता है. भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के 2020 के आंकड़ों के अनुसार, अकेले उत्तर प्रदेश में आवारा मवेशियों के कारण हर साल लगभग 5,000 करोड़ रुपये का नुकसान होता है, जिसका मुख्य कारण फसलों की बर्बादी है. यह स्थिति उन किसानों के लिए गहरी चिंता का विषय है, जिनकी आजीविका कृषि पर निर्भर है.
किसानों और मवेशियों दोनों के साथ दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए, इस समस्या का प्रभावी और टिकाऊ समाधान खोजना बेहद जरूरी हो गया है. आवारा मवेशियों की समस्या पिछले विधानसभा चुनावों में एक महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा भी बनी थी, जिस पर स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से बात की थी. हालांकि, चुनाव बीत जाने के बाद स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया. इस गंभीर समस्या का एक कारगर और दीर्घकालिक समाधान 'पशु आश्रय' (कैटल हॉस्टल) की स्थापना है. ये आश्रय स्थल न केवल लावारिस पशुओं को सुरक्षित ठिकाना प्रदान कर सकते हैं, बल्कि उनके अपशिष्ट का प्रभावी उपयोग करके किसानों और पर्यावरण दोनों के लिए लाभकारी साबित हो सकते हैं.
सरकार द्वारा इस समस्या से निपटने के लिए कई योजनाएं लागू की गई हैं, लेकिन वे अपेक्षित परिणाम देने में विफल रही हैं.
लावारिस पशुओं के लिए गौशालाएं बनाने की योजनाएं तो बनीं, लेकिन उनका कार्यान्वयन सीमित और अप्रभावी रहा. धन की कमी, संसाधनों का अभाव और मवेशियों की बढ़ती संख्या के कारण ये गौशालाएं कारगर साबित नहीं हो पाई हैं. कृषि मंत्रालय की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, कई गौशालाओं में पर्याप्त जगह और सुविधाओं की कमी है, और उनका प्रबंधन अक्सर प्रशासनिक अक्षमता और वित्तीय संकटों से ग्रस्त रहता है, जिसके चलते मवेशी खुले में घूमने को मजबूर रहते हैं.
सरकार ने आवारा मवेशियों को पकड़ने और एकत्र करने के लिए कंट्रोल वैन और कैचिंग टीमों का गठन किया, लेकिन नीति आयोग की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, यह एक अस्थायी उपाय है. इन वैनों की संख्या और कार्यक्षमता सीमित है और मवेशियों को पकड़ने का समय और स्थान अक्सर सही नहीं होता, जिससे वे जल्द ही वापस लौट आते हैं. इसके अलावा, मवेशी मालिकों के खिलाफ प्रभावी कानूनी कार्रवाई का अभाव समस्या को बार-बार जन्म देता है.
सरकार ने किसानों को मवेशियों द्वारा फसलों को हुए नुकसान का मुआवजा देने का प्रावधान किया है, लेकिन भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, इस योजना में कई कमियां हैं. मुआवजा राशि अक्सर वास्तविक नुकसान से बहुत कम होती है और प्रशासनिक देरी, भ्रष्टाचार और जटिल प्रक्रियाओं के कारण किसानों को इसका पूरा लाभ नहीं मिल पाता.
मवेशियों के संरक्षण के लिए पशु क्रूरता निवारण कानून और अन्य संबंधित कानून मौजूद हैं, लेकिन पशुपालन मंत्रालय की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, इन कानूनों का कार्यान्वयन बहुत कमजोर है. मवेशी मालिकों को उनके जानवरों के लिए जिम्मेदार ठहराने की कोई प्रभावी प्रणाली नहीं है और अक्सर कोई कार्रवाई नहीं होती. इसी कारण मवेशियों की संख्या बढ़ती जा रही है और वे बिना किसी नियंत्रण के घूम रहे हैं, जिससे किसानों को लगातार नुकसान हो रहा है.
लेखक: डॉ. रणवीर सिंह (ग्रामीण विकास संबधित परियोजनाओं और नीति निर्धारण प्रबंधन मे 4 दशक का अनुभव)
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