टिश्यू कल्चर के माध्यम से केले की खेती में बंपर उत्पादन हासिल करने की एक बेहतर तकनीक है, जो पुराने केला किस्मों की खेती की कई चुनौतियों का समाधान कर देती है. इस विधि से उच्च गुणवत्ता वाले, एक समान और रोग-मुक्त पौधे तैयार किए जाते हैं. इससे केले की उपज और गुणवत्ता दोनों बेहतर होती है और किसानों को अधिक लाभ मिलता है. पिछले कुछ वर्षों में टिश्यू कल्चर विधि से केले की उन्नत प्रजातियों के पौधे तैयार किए जा रहे हैं. इस विधि से तैयार पौधों से केले की खेती करने के अनेक लाभ हैं. केले की खेती करने वाले किसान टिश्यू कल्चर से तैयार पौधे की रोपाई कर बेहतर लाभ ले सकते हैं.
डॉ. राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा समस्तीपुर के प्लांट पैथालॉजी के हेड और आईसीएआर -एआईसीआरपी (फल) परियोजना के प्रधान अन्वेषक डॉ. एस.के सिंह का कहना है कि टिश्यू कल्चर से तैयार केले के पौधे स्वस्थ होते हैं और इनमें रोग नहीं होते हैं. फलों का आकार, प्रकार और गुणवत्ता समान होती है. टिश्यू कल्चर से तैयार पौधों में फलन लगभग 60 दिन पहले हो जाता है. पहली फसल 12-14 माह में मिलती है, जबकि पारंपरिक पौधों में 15-16 माह लगते हैं. टिश्यू कल्चर से तैयार पौधों की औसत उपज 30-35 किलोग्राम प्रति पौधा तक हो सकती है. वैज्ञानिक विधि से खेती करके 60 से 70 किलोग्राम के घौद प्राप्त किए जा सकते हैं. पहली फसल के बाद दूसरी फसल (रैटून) 8-10 माह में आ जाती है, तो इस प्रकार 24-25 माह में दो फसलें ली जा सकती हैं. इन टिश्यू कल्चर किस्मों की खेती करने से समय और धन दोनों की बचत होती है, जिससे लाभ का दायरा बढ़ जाता है.
केले की खेती करने वाले किसानों को डॉ. एसके सिंह ने सुझाव दिया कि जब वे नर्सरी से टिश्यू कल्चर पौधे की खरीदारी कर रहे हैं तो इस बात का ध्यान दें कि अच्छे टिश्यू कल्चर पौधे की ऊंचाई कम से कम 30 सेमी होनी चाहिए और तने की मोटाई 5.0-6.0 सेमी होनी चाहिए. नर्सरी के पौधे में 5-6 सक्रिय स्वस्थ पत्ते और 25-30 सक्रिय जड़ें होनी चाहिए, जिनकी लंबाई 15 सेमी से अधिक होनी चाहिए. पॉली बैग की लंबाई 20.0 सेमी, व्यास 16 सेमी, और उसका वजन 700-800 ग्राम होना चाहिए.
डॉ. एसके सिंह के मुताबिक सभी पौधे आनुवंशिक रूप से मूल पौधे के समान होते हैं और रोगजनकों से मुक्त होते हैं. ये पौधे पारंपरिक पौधों की तुलना में अधिक सशक्त और तेजी से विकास करने वाले होते हैं. जल्दी फल लगते हैं और अधिक उपज क्षमता के गुण होते हैं. हाई डेंसिटी तरीके से रोपण किया जा सकता है, जिससे रासायनिक इनपुट की जरूरत कम होती है. ये पौधे सूखे और तापमान में उतार-चढ़ाव जैसे तनावों के प्रति अधिक सहनशील होते हैं. नई और बेहतर किस्मों के तेजी से गुणन की सुविधा होती है.
खेत की तैयारी के समय 50 सेंटीमीटर गहरा, 50 सेंटीमीटर लंबा और 50 सेंटीमीटर चौड़ा गड्ढा खोदा जाता है. बरसात के मौसम शुरू होने से पहले यानी जून के महीने में खोदे गए गड्ढों में 8 किलो कंपोस्ट खाद, 150-200 ग्राम नीम की खली, 250-300 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट आदि डालकर मिट्टी भरी जाती है. अगस्त के महीने में इन गड्ढों में केले के पौधों को लगाया जाता है. आम तौर पर रोपाई 1.6 बाई 1.6 मीटर की दूरी पर की जाती है, यानी लाइन से लाइन के बीच की दूरी 1.6 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 1.6 मीटर होती है. इस तरह 1560 पौधे एक एकड़ में लगते हैं.
सघन रोपाई (हाईडेंसिटी) विधि से में 1.2 बाई 1.2 मीटर की दूरी पर पौधों को लगाया जाता है, जिसमें 2000 पौधे एक एकड़ में लगते हैं अगर ज्यादा पौधे लगेंगे तो स्वभाविक है कि प्रति एकड़ ज्यादा उपज मिलेगी. केले की खेती में भूमि की ऊर्वरता के अनुसार प्रति पौधा 300 ग्राम नत्रजन, 100 ग्राम फॉस्फोरस और 300 ग्राम पोटाश की जरूरत पड़ती है. पोटाश की पूरी मात्रा ओर फॉस्फोरस की आधी मात्रा पौधरोपण के समय और बाकी आधी मात्रा रोपाई के बाद देनी चाहिए. नाइट्रोजन की पूरी मात्रा पांच भागों में बांटकर अगस्त, सितंबर, अक्टूबर, और फरवरी-अप्रैल में देनी चाहिए.
केले की खेती में आधुनिक तकनीकों को अपनाकर किसान कम लागत में अधिक उत्पादन करके भरपूर मुनाफा कमा सकते हैं. टिश्यू कल्चर के माध्यम से केले की खेती करना एक परिवर्तनकारी दृष्टिकोण है जो पारंपरिक विधियों की चुनौतियों का समाधान करता है. उच्च गुणवत्ता वाले एक समान और रोग-मुक्त पौधे न केवल उत्पादकता बढ़ाते हैं बल्कि टिकाऊ और लाभदायक खेती में भी योगदान करते हैं.
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