भारत में बड़े पैमाने पर केले की खेती की जाती है. हम लोग सबसे बड़े केला उत्पादकों में से एक हैं, लेकिन केले पर लगने वाला पनामा रोग केले की जान मुश्किल में डाल रहा है. कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार दुनियाभर में 99 प्रतिशत केलों की फसल में टीआर-4 (ट्रॉपिकल रेस-4) फंगस का खतरा मंडरा रहा है. अभी तक 20 से अधिक देशों में यह रोग फैल चुका है. इस रोग से केले की बागवानी पूरी तरह से चौपट हो जाती है और किसानों को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ता है. कोरोना महामारी ने जिस तरह मानव अस्तित्व को चिंता में ला दिया था ठीक उसी तरह से केले की फसल में यह रोग महामारी बनकर उभर रहा है. इसने केले के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है.
किसान और शोधार्थी फसल की ऐसी स्थिति से चिंता में हैं और इस रोग से बचाव के उपायों पर लगातार काम कर रहे हैं. सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि यह रोग, लक्षण दिखने से पहले ही पौधे में फैल जाता है. पौधे पर प्रकोप होने पर इस रोग को रोकना असंभव हो जाता है. इस रोग में केले के पत्ते हरे रंग के मुकाबले अधिक पीले और किनारे काले पड़ जाते हैं. तना सड़ने लगता है और इस तरह पूरी फसल चौपट हो जाती है.
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सबसे पहले इस रोग को 1950 के दशक में देखा गया था. इसे सबसे खराब वनस्पति महामारियों में से एक माना गया है. पिछले दशक के दौरान इस महामारी में अचानक तेजी आ गई है. इसका विस्तार एशिया से ऑस्ट्रेलिया, मध्य-पूर्व, अफ्रीका और वर्तमान में लैटिन अमेरिका तक हो चुका है. दुनियाभर के वैज्ञानिक आनुवंशिक रूप से संशोधित केले के माध्यम से इस रोग के निवारण के लिए टीका बनाने का अथक प्रयास कर रहे हैं.
इस प्रयास में ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक रूप से संशोधित 'कैवेंडिश केले' को विकसित किया है. केले की यह किस्म टीआर-4 फंगस की प्रतिरोधी है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के लखनऊ स्थित बागवानी अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों ने फयुजीकोंट नामक जैविक फंगस का विकास किया है और यह इस फंगस को रोकने में सक्षम है.
इससे ग्रसित केले के पौधों का विकास रुक जाता है. इस रोग के लक्षणों की बात करें तो केले के पौधे की पत्तियां भूरी होकर गिर जाती हैं और तना भी सड़ने लगता है. यह एक बहुत ही घातक बीमारी मानी जाती है, जो केले की पूरी फसल को बर्बाद कर देती है. इस बीमारी का कारक फ्यूजेरियम नामक फंगस 30-40 साल तक मिट्टी में जीवित रह सकता है.
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