गन्ना एक ऐसी फसल है जो किसानों को अच्छा मुनाफा देती है लेकिन इसमें पानी की खपत बहुत ज्यादा लगती है. इसलिए इसमें पानी का मैनेजमेंट बहुत जरूरी है. अगर इसमें पानी की खपत कम कर दी जाए तो किसानों का फायदा और बढ़ सकता है. कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि टपक और फव्वारा विधि से सिंचाई की जाए तो 40 से 60 फ़ीसदी तक पानी की बचत हो सकती है.देश में गन्ने का उत्पादन करने वाले विभिन्न क्षेत्रों में बारिश की मात्रा, समयांतराल तथा मिट्टी के भौतिक गुणों में अंतर होने के साथ-साथ जलवायु की दशा के अनुसार सिंचाई की आवश्यकता भी भिन्न-भिन्न होती है. इस फसल में काफी अधिक पानी की आवश्यकता होती है. इसकी पानी की मांग लगभग 1400 से 2300 मिलीमीटर, उपोष्ण क्षेत्र में और 2000 से 3500 मिलीमीटर उष्ण क्षेत्र में होती है.
खेत में उचित नमी न होने से गन्ने की बढ़वार एवं रस की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है. सिंचाई की उचित व्यवस्था होने पर वर्षा ऋतु के पहले उत्तरी भारत में बसंतकालीन गन्ने में 5-6, शरदकालीन गन्ने में 6-7, पछेती बुवाई की दशा में 4-5 तथा गन्ने की पेड़ी में 5-6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है. दक्षिणी भारत में गन्ने में 25-30 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. सामान्य गन्ने में प्रत्येक सिंचाई की मात्रा लगभग 7 से 8 सेंमी गहरी रखनी चाहिए. गर्मी के दिनों में भारी मिट्टी वाले खेतों में 8-10 दिनों के अंतर पर एवं ठंड के दिनों में 15 दिनों के अंतर से सिंचाई करें. हल्की मिट्टी वाले खेतों में 5-7 दिनों के अंतर पर सिंचाई करें.
मॉनसून काल में सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है. यदि सूखे की स्थिति आती है या फिर कम वर्षा होती है, तो 1 या 2 सिंचाई करनी आवश्यक होती है. वर्षा के मौसम में खेत में उचित जल निकास का प्रबंध अवश्य करना चाहिए, जिससे फसल उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव न पड़े.
सिंचाई की मात्रा कम करने के लिये कुंड़ों में गन्ने की सूखी पत्तियों की पलवार की 10-15 सेंटीमीटर तह बिछायें. गर्मियों में, यदि जल की मात्रा की उपलब्धता कम है, तो एक कूड़ छोड़कर सिंचाई करनी चाहिए. गन्ने में टपक विधि से सिंचाई करने से पारंपरिक विधियों की तुलना में 60 प्रतिशत जल की बचत होती है. गर्मी के मौसम में जब फसल 5-6 महीने तक की होती है, तो फव्वारा विधि से भी सिंचाई की जा सकती है. इससे 40 प्रतिशत जल की बचत की जा सकती है.
सिंचाई की आधुनिक विधियों द्वारा भी 85-95 प्रतिशत जल का उपयोग पौधों के लिए किया जा सकता है. ऐसी विधियों में स्प्रिक्लर तथा ड्रिप सिंचाई विधियां कारगर हैं. सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली (ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंक्लर सिंचाई) को अपनाने से जल उपयोग दक्षता में सुधार हो सकता है. सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियां जल का एक समान अनुप्रयोग सुनिश्चित करती हैं. इसलिए, एक खेत के सभी पौधों को समान मात्रा में जल मिलता है.
पानी की कमी वाले क्षेत्रों के लिए सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों को अपनाना लाभदायक हो सकता है. सिंचाई के लिए श्रम की आवश्यकता के साथ-साथ जल की आवश्यकता कई गुना कम हो जाती है. इन विधियों का प्रयोग करके जल की बचत की जा सकती है एवं इसके साथ ही उर्वरकों, रसायनों आदि की खपत में भी कमी आती है. इस प्रकार खेती में लगने वाली लागत को भी कम किया जा सकता है. माइक्रो इरिगेशन आधारित कृषि से उपज की गुणवत्ता में सुधार होता है.
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