MP Election: इस इलाके में लोगों को नाश्ता कराए बिना नहीं होता चुनाव प्रचार, बेहद खास है यह मुहिम 

MP Election: इस इलाके में लोगों को नाश्ता कराए बिना नहीं होता चुनाव प्रचार, बेहद खास है यह मुहिम 

निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ चुके रामेश्वर सिंगाड कहते हैं कि राजनीतिक दल तो बड़े बजट के साथ चुनाव में आते हैं इसलिए उन्हें सेव परमल खिलाने से फर्क नहीं पड़ता. लेकिन निर्दलीय के पास न पार्टी फंड होता है न ही उनका घोषित-अघोषित चुनावी चंदा मिलता है. इसलिए हमें दिक्कत होती है.

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MP Election: इस इलाके में लोगों को नाश्ता कराए बिना नहीं होता चुनाव प्रचार, बेहद खास है यह मुहिम आदिवासी लोगों को नाश्ता बांटते हुए

मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में प्रचार - प्रसार का दौर चरम पर है, हर मतदाता तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में पश्चिम मध्यप्रदेश में एक इलाका ऐसा है जहां उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों को मतदाताओं को उनके गांव में जाकर समझाने के लिए खाटला चौपाले लगानी पड़ती है और इन चौपालों के तत्काल बाद सेव परमल का नाश्ता करवाना अनिवार्य होता है, इन खाटला बैठकों को स्थानीय आदिवासी भाषा में मीटिंग भी कहां जाता है. स्थानीय राजनीति के जानकार बताते हैं कि बिना सेव‌ परमल के आपकी मीटिंग यानी खाटला बैठके फैल हो सकती है. ग्रामीण नाराज हो सकते हैं इसलिए उम्मीदवारो की मजबूरी है कि उन्हें अपने काफिले में एक वाहन सेव परमल से भरा हुआ शामिल करना पड़ता है.

 उस वाहन को देखकर ही बैठकों में संख्या बढ़ती है यह सेव परमल खिलाने की परंपरा बीते कुछ दशक पहले शुरू हुई थी और अब यह परंपरा अनिवार्यता बन गई है. राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को यह सबसे बड़ा खर्च है लेकिन इसे छिपाकर करने की भी मजबूरी है क्योंकि भारत निर्वाचन आयोग ने खर्च की सीमा तय कर रखी है.

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मजबूरी या परंपरा ?

क्या बिना सेव परमल खिलाए खाटला बैठके यानी मीटिंग सफल हो सकती है ? यह सवाल जब हमने बीते 4 विधानसभा चुनाव को कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार दिनेश वर्मा से किया तो उनका कहना था कि हां सेव परमल उम्मीदवारों की ग्रामीण इलाकों में बैठकों की सफलता की गारंटी है क्योंकि बिना भीड़ के आप बैठके किसी के साथ करेंगे ? भीड़ आपकी बात सुनने तभी एक जाजम पर बैठेगी. वरना उदासीनता साफ देखी जाती है इतना ही नहीं अगर बैठक हो जाये और अगर सेव परमल ना बटे तो नाराजगी उम्मीदवार के खिलाफ वोट में बदल सकती है.

यह खर्चा राजनीतिक दलों के साथ साथ निर्दलीय उम्मीदवारों को भी उठाना मजबूरी है. निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड चुके रामेश्वर सिंगाड कहते हैं कि राजनीतिक दल तो बड़े बजट के साथ चुनाव में आते हैं इसलिए उन्हें सेव परमल खिलाने से फर्क नहीं पड़ता लेकिन निर्दलीय को ना पार्टी फंड होता है ना ही उनका घोषित - अघोषित चुनावी चंदा मिलता है इसलिए हमें दिक्कत होती है,यही वजह है कि इलाके में निर्दलीय के जीतने का इतिहास नहीं है.

रेट निकालकर होता है सौदा

पश्चिम मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचल झाबुआ में नमकीन सेव का बहुत चलन है. आम इंसान अगर थोड़ा सा सक्षम होता है तो खाने की थाली में सेव नमकीन होता ही है,ऐसे में जब चुनाव प्रचार अभियान के दौरान क्विंटलों में सेव खरीदना होता है तो बकायदा उम्मीदवार भी कम रेट का नमकीन हासिल करने के लिए मौल भाव करते हैं .. नमकीन के थोक विक्रेता राजेन्द्र कुमार कहते हैं कि चुंकि बल्क में माल देना होता है तो रेट में थोड़ा बहुत मोल भाव किया जाता है हम लोग भी कम मुनाफे पर माल दे देते हैं.

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