ओडिशा में ऐसे बचा मोटे अनाजों का वजूद, कुटिया कोंध जनजाति ने निभाया बड़ा रोल

ओडिशा में ऐसे बचा मोटे अनाजों का वजूद, कुटिया कोंध जनजाति ने निभाया बड़ा रोल

ओडिशा में 2011 तक केवल 5 मोटे अनाजों की खेती हो रही थी. पहले यह संख्या अधिक थी, लेकिन बाद में कई अनाजों की खेती किसानों ने छोड़ दी. उन्हें लगा कि मोटे अनाज बेचकर कमाई नहीं की जा सकती. अब यह सोच बदल गई है क्योंकि सरकारें इसमें आगे आई हैं.

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ओडिशा की कुटिया कोंध जनजाति ने बचाया मोटे अनाजों का वजूदमोटे अनाज की खेती

ये कहानी ओडिशा के कुटिया कोंध जनजाति की है. इस कहानी का केंद्र मोटे अनाज हैं, जो अब लगभग गायब से हैं. वही मोटा अनाज जिसे आम बोलचाल में 'गरीबों का भोजन' कहा जाता है. लेकिन अब ये मिथक टूट गया है क्योंकि मोटे अनाजों की मांग गरीबों से अधिक अमीरों में है. ओडिशा की कुटिया कोंध जनजाति ने अपने दम पर मोटे अनाजों का अस्तित्व बचाया है. इस पहल में बरलांग यात्रा ने अहम भूमिका निभाई जो कुटिया कोंध जनजाति का पारंपरिक त्योहार है.

कंधमाल जिले में बेलघर घाटी है जहां एक गांव है डूपी. इस गांव में रहने वाली जनजाति के लोगों का वैसे तो मोटे अनाज से शुरू से गहरा नाता रहा है, पर हाल के वर्षों में इसमें कुछ ठहराव सी आ गई थी. इसके पीछे वजह बताई जा रही है कि राशन में मिलने वाले अनाजों के चलते किसान या जनजाति के लोगों का ध्यान मोटे अनाजों से थोड़ा भटक गया. खेती कम होने लगी और स्थिति लुप्तप्राय वाली होने लगी. ऐसे में कुटिया कोंध जनजाति के लोगों ने मोटे अनाजों को बचाने का जिम्मा लिया और इसके लिए बड़े स्तर पर सामूहिक अभियान चलाया. नतीजा ये हुआ कि 2011 में इस क्षेत्र में उपजाए जाने वाले महज पांच मोटे अनाज आज 12 तक पहुंच गए हैं.

वरदान बनी बरलांग यात्रा

चूंकि यह अभियान बड़ा था और जिम्मेदारी भी बड़ी थी. लिहाजा कुटिया कोंध के लोगों ने इसे अपने सबसे खास त्योहार बरलांग यात्रा से जोड़ दिया. यह यात्रा या त्योहार कुटिया जनजाति के लोगों के दिल से जुड़ी है. यही वजह है मोटे अनाजों के वजूद को बचाने का अभियान भी बरलांग त्योहार के साथ जुड़ता चला गया. ऐसे समय में जब पूरे देश में केंद्र सरकार के स्तर पर या ओडिशा सरकार की ओर से भी मोटे अनाजों के प्रमोशन का सिलसिला तेजी से चल रहा है, कुटिया कोंध जनजाति की मिसाल बेहद अहम हो जाती है.

लुप्त होते-होते बचा मोटा अनाज

शुरुआती दौर की बात करें तो ओडिशा के अदिवासी या जनजाति का मुख्य भोजन मोटा अनाज ही हुआ करता था. इसमें ज्वार और बाजरा प्रमुख होते थे. इस बीच बाजार से लेकर घर तक चावल-गेहूं का बोलबाला बढ़ता चला गया जो राशन के जरिये लोगों के किचन तक पहुंच गया. इस स्थिति में कुटिया कोंध जनजाति को महसूस हुआ कि जो मोटा अनाज वे उपजाते हैं, उसका इस्तेमाल वे ही करेंगे और वे ही उसे खाएंगे. जनजाति से बाहर के लोग इसका इस्तेमाल नहीं करेंगे. जनजाति के लोगों को लगा कि मोटा अनाज उपजा कर वे उसे अपने इस्तेमाल में ही लेंगे, न कि उसे बेचकर कोई कमाई कर पाएंगे. 

इस सोच के प्रबल होने के बाद जनजाति के लोगों में मोटे अनाजों की खेती से दुराव सा होने लगा. आगे चलकर कई मोटे अनाजों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया. तब तक सरकारी दौर आया जिसमें मोटे अनाजों के प्रमोशन का सिलसिला शुरू हुआ. केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों ने उन किसानों को प्रोत्साहित करना शुरू किया जो मोटे अनाजों की खेती पर जोर देते हैं. इसके बाद कुटिया कोंध जनजाति के लोगों ने इस गंभीर स्थिति पर खुद से विचार किया और उन अनाजों की लिस्ट बनाई जो उनके खेतों से गायब हो गई थी. इसके बाद तय हुआ कि जो अनाज खेतों से गायब हैं, उन्हें फिर से पुनर्जीवित किया जाएगा.

जनजागरुकता आई काम

इस अभियान में बरलांग यात्रा काम आई. कंधमाल जिले में यह यात्रा किसी बड़े त्योहार से कम नहीं. इसमें घर-घर से लोग शामिल होते हैं. लिहाजा मोटे अनाजों के बारे में जनजागरुकता फैलाने के लिए इससे अच्छा कोई माध्यम नहीं हो सकता था. जनजागरुकता का नतीजा रहा कि कुटिया कोंध जनजाति के लोगों में मोटे अनाजों के प्रति फिर से आकर्षण पैदा हुआ और इसकी खेती बड़े पैमाने पर शुरू हुई. स्थिति ये रही कि 2011 में महज 5 मोटे अनाज ही बचे थे जिनकी खेती होती थी, लेकिन आज उसकी संख्या बढ़कर 12 हो गई है. 

बढ़ती गई मोटे अनाजों की खेती

ओडिशा सरकार ने भी इसमें बड़ी मदद की. सरकार ने 2017 में मिलेट मिशन शुरू किया था जिसका दायरा और आगे बढ़ा दिया गया. साल 2022 में इस मिशन में सरकार ने 2800 करोड़ रुपये का खर्च और बढ़ाने का निर्णय लिया. 'दि हिंदू' की एक रिपोर्ट बताती है कि इस साल मिलेट की खेती में 19 जिलों के लगभग 2 लाख किसानों ने हिस्सा लिया है और अब तक 3.23 लाक कुंटल मोटे अनाजों की खरीद की जा चुकी है. इसे और भी तेजी देने के लिए ओडिशा सरकार ने हर साल 10 नवंबर को मंडी दिवस मनाने का फैसला किया है.

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