दलहनी फसलों में मसूर का भी अपना अलग एक महत्वपूर्ण स्थान है. मसूर की दाल जिसे लाल दाल के नाम से भी जाना जाता है. मसूर उत्पादन में भारत का दुनिया में दूसरा स्थान है.इसे महत्तवपूर्ण प्रोटीन युक्त दालों वाली फसल भी कहा जाता हैं.इसे ज्यादातर मुख्य दाल के तौर खायी जाती है.यह दाल गहरी संतरी, और संतरी पीले रंग की होती है.यदि इसकी खेती को व्यवसायिक स्तर पर किया जाए तो इससे काफी मुनाफा कमाया जा सकता है. इसकी खेती से किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं. मसूर का इस्तेमाल दाल के रूप में खाने के अलावा नमकीन और मिठाइयों को बनाने के लिए भी करते है. यह एक दलहनी फसल है, जिस वजह से इसकी जड़े गांठ वाली होती है.
मसूर के दानो में पोषक तत्व की मात्रा अधिक होती है इसलिए बाजार में इसकी मांग बनी रहती हैं. ऐसे में किसानों के लिए मसूर की खेत फायदे का सौदा साबित हो सकती है. इसकी खेती अक्टूबर से दिसम्बर महीने में की जाती है खरीफ सीजन शुरू हो चुका है ऐसे में किसान सही तरीके से मसूर की खेती कर अच्छा उत्पादन और मुनाफा दोनों ले सकते हैं.
मसूर को मिट्टी की सभी किस्मों में उगाया जा सकता है। नमक वाली, क्षारीय और जल जमाव वाली मिट्टी में इसकी खेती ना करें। मिट्टी भुरभुरी और नदीन रहित होनी चाहिए ताकि बीज एक समाज गहराई में बोये जा सकें।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लिए मसूर की नवीनतम अनुमोदित किस्में इस प्रकार हैं. उत्तरपश्चिमी मैदानी क्षेत्र के लिए- एलएल-147, पंत एल-406, पंत एल-639, समना, एलएच 84-8, एल-4076, शिवालिक, पंत एल-4, प्रिया, डीपीएल-15, पंत लेंटिल-5, पूसा वैभव और डीपीएल-62 प्रमुख रूप से उपयोगी है। इसी प्रकार उत्तरपूर्व मैदानी क्षेत्र के लिए एडब्लूबीएल-58, पंत एल-406, डीपीएल-63, पंत एल-639, मलिका के-75, के एलएस-218 और एचयूएल-671 किस्में अच्छी मानी गई हैं. इसके अलावा मध्य क्षेत्र के लिए जेएलएस-1, सीहोर 74-3, मलिका के 75, एल 4076, जवाहर लेंटिल-3, नूरी, पंत एल 639 और आईपीएल-81 किस्में काफी उपयोगी साबित हुई हैं.
हल्की मिट्टी में सीड बैड तैयार करने के लिए कम जोताई की आवश्यकता होती है. भारी मिट्टी में एक गहरी जोताई के बाद 3-4 हैरो से क्रॉस जोताई करनी चाहिए. ज़मीन को समतल करने के लिए 2-3 जोताई पर्याप्त होती है. पानी के उचित वितरण के लिए ज़मीन समतल होनी चाहिए. बीजों की बिजाई के समय खेत में उचित नमी मौजूद होनी चाहिए.
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मसूर में सूखा सहन करने की क्षमता होती है. आमतौर पर सिंचाई नहीं की जाती है, फिर भी सिंचित क्षेत्रों में 1 से 2 सिंचाई करने से उपज में वृद्धि होती है. पहली सिंचाई शाखा निकलते समय यानी बोआई के 40 से 45 दिन बाद और दूसरी सिंचाई फलियों में दाना भरते समय बुवाई के 70 से 75 दिन बाद करनी चाहिए। ध्यान रखें कि पानी अधिक न होने पाए। इसके लिए स्प्रिंकलर का इस्तेमाल सिंचाई के लिए किया जा सकता है. खेत में स्ट्रिप बना कर हल्की सिंचाई करना लाभकारी रहता है. अधिक सिंचाई मसूर की फसल के लिए लाभकारी नहीं रहती है. इसलिए खेत में जल निकास का उत्तम प्रबंध होना आवश्यक है.
कटाई सही समय पर करनी चाहिए जब पौधे के पत्ते सूख जाएं और फलियां पक जाएं तब फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है देरी करने से फलियां झड़नी शुरू हो जाती है इसकी कटाई द्राती से करें. दानों को साफ करके धूप में सुखाकर 12 प्रतिशत नमी पर स्टोर कर लें.
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