मध्य प्रदेश में बीते दिनों पटवारी की भर्ती प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर हुई कथित गड़बड़ियां उजागर होने के बाद पटवारी का पद अचानक सुर्खियों में आ गया. सदियों से किसान की बात सरकार तक और सरकार की बात किसान तक पहुंचाने का दायित्व निभा रहे पटवारियों का काम आज भर्ती में गडबड़ी के कारण चर्चा में है. खेती, किसानी और किसान के जीवन को सुगम बनाने में पटवारी की भूमिका पर पुरजोर बहस जारी है. एमपी ही नहीं, बल्कि देश के हर राज्य में पटवारी को ही ग्रामीण जीवन की धुरी माना जाता है. लिहाजा, किसान तक ने एमपी से उठे पटवारी भर्ती मामले में चल रही बहस के बीच पटवारियों और किसानों के बीच के सदियों पुराने रिश्ते में समय के साथ आए बदलाव को समझने की पहल की. इसके लिए किसान तक की 'चौपाल' में किसानों और पटवारियों ने आपसी रिश्तों को अतीत के आईने में झांकते हुए वर्तमान और भविष्य के लिहाज से परखने की कवायद की.
भारतीय शासन व्यवस्था में कलेक्टर से लेकर इंस्पेक्टर तक तमाम ओहदे ऐसे हैं जो आजाद भारत में ब्रिटिश काल की यादें आज भी ताजा करते हैं. इससे इतर, पटवारी का पद ऐसा है जो मुगल काल से ही शासन तंत्र में अपनी पुरानी अहमियत के साथ बरकरार है. इतिहास में दर्ज तथ्यों से पता चलता है कि शेरशाह सूरी के शासन काल में पटवारी प्रणाली शुरू हुई थी. इसके बाद सरहिंद के शहंशाह अकबर ने भी पटवारी प्रणाली को अपने शासन तंत्र में प्रमुखता से जारी रखा.
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जनता तक शासन की बात पहुंचाने के लिए पटवारी प्रणाली को व्यवस्थित करने का श्रेय अकबर के सबसे मुख्य दरबारी राजा टोडरमल को जाता है. इस दौर में जमीनों को सरकारी और निजी जमीन के रूप में चिन्हित कर उन जमीनों के दस्तावेज तैयार कराने की प्रक्रिया शुरू की गई. हर पट्टी के गांवों में भू अभिलेख अधिकारी के रूप में जमीनों का रिकॉर्ड दर्ज करने की जिम्मेदारी पटवारी को दी गई.
इसके बाद ब्रिटिश काल में पटवारी व्यवस्था को और ज्यादा मजबूती प्रदान करते हुए 1918 में हर गांव में पटवारियों की तैनाती कर दी गई. इसके साथ ही लगान वसूली से लेकर जमीन की नाप, रिकॉर्ड दर्ज करने और विवादों का निपटारा करने तक, गांवों में शासन के तमाम काम पटवारियों के मार्फत ही किए जाने लगे.
आजादी के बाद शहरीकरण तेज होने के बावजूद पटवारी प्रणाली यथावत जारी रही. अलग अलग राज्यों में पटवारियों के नाम भले ही अलग अलग हो गए हों, लेकिन इनके काम और अधिकार क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं आया. पाकिस्तान में भी पटवारी प्रणाली आज भी लागू है.
गुजरात और महाराष्ट्र में 1918 तक पटवारी को 'कुलकर्णी' कहा जाता था, जिसे बाद में तलाटी कहने लगे. इसी तरह तमिलनाडु में पटवारी को कर्णम, पंजाब में पिंड दी मां यानी गांव की मां कहा जाता है. यूपी में चौधरी चरण सिंह ने पटवारी पद का नाम बदलकर लेखपाल कर दिया था. एमपी में पटवारी प्रणाली पहले की तरह लागू है और इस राज्य में पटवारियों की मजबूत यूनियन भी है, जो पटवारियों के हित सुरक्षित रखने के लिए सरकार पर माकूल दबाव बनाने का भी काम करती है.
भारत सरकार ने 2005 में जमीनों के रिकॉर्ड को डिजिटल बनाने का काम शुरू किया था. इसके लिए तत्कालीन सरकार ने पटवारी इंर्फोमेशन सिस्टम नामक सॉफ्टवेयर बनाया, जिसकी मदद से भू राजस्व रिकार्ड को कंप्यूटरीकृत किया गया.
एमपी में पटवारी संघ की ग्वालियर यूनिट से जुड़े वरिष्ठ पटवारी ज्ञान सिंह राजपूत का कहना है कि किसान और पटवारी का रिश्ता एक दूसरे पर निर्भरता वाला है. पटवारी के बिना किसानी संभव नहीं है. यह बात पुराने जमाने से लेकर आज के मौजूदा कानून के तहत स्थाई रूप से लागू है. उनकी दलील है कि किसी भी गांव में जमीन, चाहे सरकारी हो या किसान की, उसकी नाप करने का अंतिम अधिकार पटवारी के पास ही है. ग्रामीण व्यवस्था में लगान ही एकमात्र टैक्स है, जिसकी वसूली पटवारी करता है. इतना ही नहीं गांवों में भू राजस्व से जुड़े सभी काम पटवारियों के ही जिम्मे हैं.
एमपी के ही छतरपुर जिले की गौरिहार तहसील में पटवारी हरिराम अहिरवार ने बताया कि किसानों के साथ पटवारियों का सुख दुख का रिश्ता होता है. अहिरवार ने कहा कि किसानों की जमीन, फसल और उपज का मूल्यांकन करने से लेकर सरकारी कर्ज दिलाने तक, तमाम जरूरी कामों में पटवारी ही किसान का हमराही होता है. उनकी दलील है कि मुगल और अंग्रेज हुकूमत के दौर में पटवारी भले ही किसानों से लगान वसूली करने की मूल जिम्मेदारी निभाने के कारण गांव का शोषण करने वाले सरकारी मुलाजिम के तौर पर बदनाम हो गए, लेकिन आजाद भारत में इस सोच को बदलने के लिए ही पटवारियों की भूमिका का दायरा बढ़ाया गया. यही वजह है कि आज भी किसान से लगान के रूप में महज कुछ रुपये की मामूली राशि ही ली जाती है. जिसे देने में किसानों को कोई तकलीफ भी नहीं होती है. उन्होंने कहा कि लगान वसूलने के अलावा पटवारी को ग्राम व्यवस्था से जुड़े सभी जरूरी काम सौंपे गए, जिससे पटवारी की छवि किसान का शोषण करने वाले की बजाए उसका हमराही होने की बने.
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एमपी के निवाड़ी जिले से सेवानिवृत्त पटवारी पीएस तोमर ने बताया कि मौजूदा दौर में सरकारी एवं निजी जमीन की नाप और भू अभिलेखों काे सहेजने के अलावा बाढ़, सूखा, या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा से किसानों की फसल नष्ट होने से लेकर सर्पदंश से मौत होने की पुष्टि करने तक, सरकार से जुड़ा किसान का लगभग हर काम पटवारी की मंजूरी से ही होता है. तोमर ने बताया कि 1966 से 1996 तक पटवारी के रूप में काम करने के दौरान उन्होंने किसान एवं पटवारी के रिश्तों में आए बदलाव को महसूस किया है. खासकर पटवारी से पदोन्नत होकर राजस्व अधिकारी यानी आरआई बनने के बाद उन्होंने देखा किया कि किस तरह पटवारी की जिम्मेदारियों में इजाफा होने से काम का बोझ जरूरत से ज्यादा हो गया है. उन्होंने कहा कि काम का बोझ बढ़ने के साथ ही किसान और पटवारी के रिश्ते, दुश्वारी भरे होने लगे.
तोमर ने कहा सरकार ने पटवारी की जिम्मेदारी तो बढ़ा दीं, लेकिन संसाधनों के अभाव की समस्या को दूर नहीं किया गया. पटवारी से अपेक्षा की जाती है कि आज भी वह साइकिल से चलकर उसी पुराने ढर्रे पर काम करे, जिसे पुराने समय में अपनाया गया था. उन्होंने कहा कि समय के साथ बदलती जरूरतों के मुताबिक पटवारियों से सरकार और किसान की जो अपेक्षाएं हैं, उन्हें पूरा करने के लिए संसाधनों की कमी को दूर करने की पटवारियों की अपेक्षा को भी पूरा किया जाना चाहिए. तभी किसान और पटवारी के बीच कानून की उम्मीदों के मुताबिक रिश्ते बहाल हो सकते हैं.
इस मुद्दे पर निवाड़ी जिले के ही प्रगतिशील किसान बलराम सिंह यादव ने कहा कि बेशक यह बात सरकार जानती है कि पटवारियों पर काम का बोझ ज्यादा है, जिसकी वजह से पटवारियों पर भ्रष्ट तरीके अपना कर किसानों का शोषण करने के आरोप लगने लगे हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है.
यादव ने कहा कि सरकार सही मायने में किसानों को भ्रष्टाचार से उपजे शोषण की समस्या से निजात दिलाना चाहती है, तो सरकार को भी साफ मंशा से पटवारी प्रणाली को पारदर्शी बनाना होगा. वरना, एमपी पटवारी भर्ती में कथित घोटाले जैसे मामले आए दिन सामने आएंगे और किसानों का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा.