आदि काल से कृषि प्रधान देश होने की अपनी पहचान को आजाद भारत ने भी अंगीकृत करते हुए देश की अर्थव्यवस्था को कृषि आधारित ही बनाए रखने की दूरगामी नीति को अपनाए रखा है. आजादी के अमृत काल में भारत की खेती किसानी का ताना बाना कुछ ऐसा आकार लेकर उभरा है, जिसने न केवल अपना बल्कि समूची दुनिया के भरण पोषण का संकल्प सिद्ध करने की सामर्थ्य प्रस्तुत की है. स्पष्ट है कि यह संकल्प उसी देश का किसान समुदाय ले सकता है, जिसके पास खेती किसानी की हजारों साल पुरानी समृद्ध विरासत सुरक्षित एवं संरक्षित हो. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी मंगलवार को 77वें स्वतंत्रता दिवस के मौके पर लाल किले की प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए दुनिया के समक्ष भारत की सर्वसमावेशी कृषि व्यवस्था का दर्शन प्रस्तुत किया. साथ ही उन्होंने देश के किसानों को उनके अन्नदाता होने की महती जिम्मेदारी का अहसास भी कराया.
भारत, संसार का शायद इकलौता देश है जिसके आगोश में लगभग 5 हजार साल का लिखित इतिहास समाया है. यह इतिहास, भारत में खेती की पुरातन परंपराओं से ही भरा पड़ा है. दुनिया का लोक साहित्य इस बात की ताकीद करता है कि आज के तमाम विकसित देश जब ठीक से खाना, पीना, ओढ़ना, पहनना और बोलना भी नहीं सीखे थे, तब भारत में खेती किसानी की विविधताओं से भरी व्यापक पद्धतियां विकसित हो चुकी थीं. जिस कालखंड में पश्चिम के लोग जंगलों में जीवन यापन करते थे, उससे भी बहुत पहले भारत में सामाजिक कार्य के तौर पर विकसित हुई खेती के बलबूते सुगठित एवं संतुलित समाज बन चुका था.
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महाभारत कालीन ग्रंथों में हल एवं बखर के उपयोग का जिक्र, इसका सटीक साक्ष्य है. आज के वैज्ञानिक युग में भारत को 15 एग्रो क्लाइमेटिक जोन के लगभग 60 उप क्षेत्रों में बांटा गया है. प्राचीन भारत का इतिहास बताता है कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में भारत में मौसम और मिट्टी के मिजाज के मुताबिक खेती में लगभग 60 प्रकार के हल का प्रयोग किया जाता रहा है. यह एकमात्र ऐसा तथ्य है, जो प्राचीन काल से भारत में खेती की उन्नत दशा को साबित करता है. इस लिहाज से भारत की खेती का पहला अहम पहलू इसकी प्राचीनता है.
भारत में खेती का अलग से लिखित इतिहास भले ही न हो, लेकिन प्राचीन भारत के इतिहास में खेती की परंपरागत पद्धतियों का भरपूर जिक्र मिलता है. पहाड़ी क्षेत्रों में लेयर फार्मिंग की परंपरा सदियों पुरानी है. वहीं मैदानी इलाकों में पानी की उपलब्धता के लिहाज से अन्न उपजाने एवं बागवानी करने की पद्धति को समग्र तौर पर 'खेती बाड़ी' कहा गया. इसी प्रकार समुद्र के तटवर्ती इलाकों में जूट, कपास और मसालों की खेती ने ही व्यवसाई सोच वाले फ्रेंच, डच, पुर्तगाली और ब्रिटिश समुदायों को अपनी ओर आकृष्ट किया था.
ऐसा माना जाता है कि भारत में खेती की पुरातन समृद्ध परंपराओं में शुमार मौसम संबंधी कालगणना का सबसे सटीक उपयोग चरवाहा समाज करता था. मौसम की गणना का यह ज्ञान एक ओर मौसम पर आधारित खेती करने वाले किसानों को लाभ देता था, वहीं इस विधा ने पौराणिक काल से ही राज समाज में प्रमुख स्थान बनाने वाले ज्योतिष विज्ञान को भी जन्म दिया.
कश्मीर में केसर से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र में कपास, पूर्वी राज्यों में रेशम तथा दक्षिण के सूबों में जूट और मसालों की खेती, समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के विशाल भूभाग का भरण पोषण हजारों साल से करती रही है. यह एक स्थापित तथ्य है कि दुनिया भर में लगभग 60 प्रकार की मिट्टी पाई जाती है. इसमें से लगभग 40 प्रकार की मिट्टी, भारत के खेतों को तकरीबन 800 तरह के खाद्यान्न उपजाने की विविधतापूर्ण उर्वरा शक्ति प्रदान करती है. इन खाद्यान्नों में अन्न, शाक, भाजी, कंद, मूल और फल फूल शामिल हैं.
इससे इतर औषधीय इस्तेमाल से लेकर मेवे में शुमार चिरौंजी सहित तमाम तरह की वन उपज को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी, वनवासी समुदाय के लोग सदियों से पूरी करते आ रहे हैं. भारत की खेती की विविधता के बलबूते ही वस्त्र, आभूषण और सुगंध से लेकर औषधियों तक, भांति भांति प्रकार की खेती का व्यवस्थित विज्ञान, भारत से दुनिया भर में फैला.
भारत में खेती को विज्ञान का जनक माना गया है. इसमें इस्तेमाल होने वाले यंत्रों में हल, बखर से लेकर फावड़ा, खुरपी और कुदाल तक, सैकड़ों प्रकार के यंत्र हजारों साल पहले बना लिए गए थे. ये यंत्र खेती के लिए इतने मुफीद साबित हुए कि आज भी इनके मूल स्वरूप में किसी तरह के बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं दिखती है. इसके समानांतर भारत की खेती में प्राचीन युग से लेकर मध्य युग और अब आधुनिक युग तक, तमाम तरह के आविष्कारों को आत्मसात किया गया. इसीलिए भारतीय खेती काे समय के साथ खुद को अपडेट करने वाली खेती माना गया है. यही वजह है कि भारतीय कृषि, हर काल खंड में अपने आधुनिक चरित्र काे बरकरार रखने में कामयाब रही है.
इसके फलस्वरूप, भारतीय कृषि ने हजारों साल पहले बने हल, बखर जैसे सैकड़ों पारंपरिक कृषि यंत्रों, खेती की पद्धतियों और मौसम की गणना से जुड़े अपने ज्ञान को आज भी उपयोग में जारी रखते हुए सैटेलाइट आधारित अत्याधुनिक कृषि विज्ञान को दूरदराज के किसानों तक पहुंचाया है. दुनिया के लिए भारत की यह एक बड़ी उपलब्धि है.
भारत की परंपरागत खेती पूरी तरह से प्रकृति के साथ तालमेल कायम करते हुए अनादि काल से चली आ रही है. इसका मूल सिद्धांत है, धरती से जितना लो, उतने ही अनुपात में उसे वापस भी दो. संतुलित खेती की यह शर्त पूरी करते हुए ही भारत के किसान न केवल इंसानों का, बल्कि अपने पशुधन सहित अन्य जीवों के भरण पोषण का संकल्प, सदियों से सिद्ध करते आ रहे हैं. यही वजह है कि भारत में खेती, पूरी तरह से सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर आधारित है.
यही वजह है कि भारतीय खेती में धरती से अन्न उपजाने से लेकर खेती में पशुधन का इस्तेमाल करने तक, कहीं भी किसी का शोषण करने का भाव किंचित मात्र भी नहीं झलकता है. कृतज्ञता के इस भाव से प्रेरित होकर ही भारत में धरती को सभी का भरण पोषण करने वाली 'मां' का दर्जा दिया गया है.
इतना ही नहीं, खेती में काम आने वाले जानवरों के प्रति भी कृतज्ञता का यही भाव प्रकट करते हुए उन्हें 'पशुधन' कहा गया है. कुल मिलाकर भारत में खेती करने को प्रकृति की पूजा करना माना गया है. इस सबके पीछे पर्यावरण संतुलन बनाये रखने का भाव निहित है. हजारों साल से बना रहा यह संतुलन, 21वीं सदी में जब वैश्विक स्तर पर बिगड़ना शुरू हुआ, तब भारत ने ही पूरी दुनिया को प्राकृतिक खेती का पैगाम दिया है, जिसे आज ऑर्गेनिक या नेचुरल फार्मिंग के नाम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली है.
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भारतीय खेती की इन 5 मूलभूत विशेषताओं ने वर्तमान की खेती-बाड़ी को समृद्ध किया है. इसीलिए भारतीय खेती का मौजूदा स्वरूप अपने 5 मूल स्तंभों पर आज भी टिके रहते हुए आधुनिक तकनीक का निरंतर समावेश कर खुद को सतत रूप से उन्नत बना रहा है. पहले की तरह आजाद भारत में भी तीन ऋतुओं पर आधारित फसल चक्र का निर्धारण किया गया. इन्हें रबी, खरीफ और जायद कहा गया है. कृषि कैलेंडर की शुरुआत चैत्र माह में पक कर तैयार होने वाली रबी की फसलों से होती है.
मौसम के लिहाज से रबी की फसलों को बोने के समय अपेक्षाकृत कम तापमान की आवश्यकता होती है, वहीं इनके पकते समय तापमान की अधिकता एवं शुष्क वातावरण की दरकार है. इसलिए इस सीजन की फसलें कार्तिक माह में बो कर चैत्र माह में काट ली जाती है. इस सीजन की मुख्य फसलें गेहूं, जौ, चना, सरसों, मटर, मसूर, आलू, राई,तम्बाकू, लाही, जंई, अलसी और सूरजमुखी के अलावा हरे चारे में बरसीम शामिल है.
खरीफ की फसलें भारतीय उपमहाद्वीप में सावन माह (जून-जुलाई) में बोई जाती हैं और इन फसलों की कटाई सितंबर से अक्टूबर के बीच आश्विन माह में हो जाती है. इस सीजन की मुख्य फसलें कपास, मूंगफली, धान, बाजरा, मक्का, शकरकंद, उर्द, मूंग, मोठ लोबिया, ज्वार, अरहर, गन्ना, सोयाबीन,भिंडी, तिल, ग्वार, जूट, सनई और हरी खाद में ढैंचा हैं.
इसी तरह जायद सीजन की फसलों की खेती मुख्य रूप से उत्तर भारत में होती है. इस सीजन की फसलें मार्च से अप्रैल के बीच बैसाख माह में बोई जाती हैं और इनकी कटाई जून से जुलाई के बीच आषाढ़ माह में हो जाती है. इस सीजन में गर्मी की सब्जियां और शरीर में पानी की कमी को पूरा करने वाले फल बोए जाते हैं. इनमें तरबूज, खीरा,खरबूजा ककड़ी के अलावा दलहनी फसलों में मूंग और उड़द तथा तिलहन फसल में सूरजमुखी की खेती मुख्य रूप से होती है.