15 अगस्त 1947 को हमें ब्रिटिश सरकार के 200 सालों के राज से आजादी मिली थी. इसके बाद से हर साल हम 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस का पर्व मनाते हैं. ये दिन हमारे अपने नायकों के त्याग, तपस्या और बलिदान की याद दिलाता है. वहीं अगर बात आजादी की हो रही है, तो अंग्रेजों के गुलामी से आजाद करवाने में चंपारण सत्याग्रह के महानायक पंडित राजकुमार शुक्ल के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है. शुक्ल ने 1917 में चंपारण सत्याग्रह में कई सालों के प्रयास के बाद मोहनदास करमचंद गांधी को चंपारण लाकर ब्रिटिश सरकार द्वारा किसानों से जबरन कारवाई जा रही नील की खेती (तीन कठिया) से मुक्ति दिलाने और उन पर हो रहे अत्याचार के बारे में बताया था.
मालूम हो कि महात्मा गांधी पहली मुलाकात में राजकुमार शुक्ल से प्रभावित नहीं हुए थे और यही वजह थी कि उन्होंने उसे टाल दिया. लेकिन इस कम-पढ़े लिखे और जिद्दी किसान ने उनसे बार-बार मिलकर उन्हें अपना आग्रह मानने के लिए मजबूर कर दिया. परिणाम यह हुआ कि चार महीने बाद ही चंपारण के किसानों को जबरदस्ती नील की खेती करने से हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई. इस तरह गांधी का बिहार और चंपारण से नाता हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गया.
गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाए हुए अस्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया. वहीं किसानों की माली हालत देखते हुए गांधी जी के मन में विचार आया कि जिस देश में आधे से ज्यादा आबादी के पास पहनने का वस्त्र नहीं है, वहां सूट बूट पहनना नाइंसाफी होगी. यहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर-बसर करेंगे. इसी आंदोलन के बाद उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से विभूषित किया गया. गौरतलब है कि राजकुमार शुक्ल और उनकी जिद न होती तो चंपारण आंदोलन से गांधी जी का जुड़ाव शायद ही संभव हो पाता.
अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के पांचवें भाग के बारहवें अध्याय ‘नील का दाग’ में गांधी लिखते हैं, ‘लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन में जाने से पहले तक मैं चंपारण का नाम तक न जानता था. नील की खेती होती है, इसका तो खयाल भी न के बराबर था. इसके कारण हजारों किसानों को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी भी मुझे कोई जानकारी न थी.’ उन्होंने आगे लिखा है, ‘राजकुमार शुक्ल नाम के चंपारण के एक किसान वहां मेरा पीछा पकड़ा. वकील बाबू (ब्रजकिशोर प्रसाद, बिहार के उस समय के नामी वकील और जयप्रकाश नारायण के ससुर) आपको सब हाल बताएंगे, कहकर वे मेरा पीछा करते जाते और मुझे अपने यहां आने का निमंत्रण देते जाते.’
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लेकिन महात्मा गांधी ने राजकुमार शुक्ल से कहा कि फिलहाल वे उनका पीछा करना छोड़ दें. इस अधिवेशन में ब्रजकिशोर प्रसाद ने चंपारण की दुर्दशा पर अपनी बात रखी जिसके बाद कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर दिया. इसके बाद भी राजकुमार शुक्ल संतुष्ट न हुए. वे गांधी जी को चंपारण लेकर जाने की जिद ठाने रहे. इस पर गांधी ने अनमने भाव से कह दिया, ‘अपने भ्रमण में चंपारण को भी शामिल कर लूंगा और एक-दो दिन वहां ठहर कर अपनी नजरों से वहां का हाल देख भी लूंगा. बिना देखे इस विषय पर मैं कोई राय नहीं दे सकता.’
राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर महात्मा गांधी चंपारण आने को तैयार हो गए. राजकुमार शुक्ल के साथ बापू 10 अप्रैल 1917 को कोलकाता से पटना और मुजफ्फरपुर होते हुए मोतिहारी गए. वहां से वे चंपारण पहुंचे और फिर वहां के किसानों के आंदोलन को जो धार मिली, उसने देश को आजादी के मुकाम तक पहुंचा दिया. दरअसल, चंपारण किसान आंदोलन ही देश की आजादी का असली संवाहक बना था. वहां के किसानों के त्याग, बलिदान और संघर्ष की वजह से आज हम आजाद भारत में सांसें लेने के लिए स्वतंत्र हैं. मालूम हो कि देश को राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी, मजहरूल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद जैसी महान विभूतियां भी इसी आंदोलन से मिलीं. इन तथ्यों से समझा जा सकता है कि चंपारण आंदोलन देश के राजनीतिक इतिहास में कितना महत्वपूर्ण है.
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