PHOTO: बीकानेर में राबड़ी दिवस मनाकर मोटे अनाजों को किया गया प्रमोट

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PHOTO: बीकानेर में राबड़ी दिवस मनाकर मोटे अनाजों को किया गया प्रमोट

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राबड़ी दिवस

पश्चिमी राजस्थान के लोगों ने अपने मूल खाने की ओर लौटने की मुहिम शुरू की है. खाने में मोटे अनाजों को फिर से शामिल करने के लिए 23 मई को बीकानेर से राबड़ी दिवस की शुरूआत की है. इसके तहत राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात और मध्यप्रदेश के सैंकड़ों परिवारों ने आज राबड़ी बनाई और उसे सामूहिक रूप से परिवार और पड़ोसियों के साथ खाया. महोत्सव में देसी मोटे अनाजों के लाभ बताए गए और कोल्ड ड्रिंक और बाजार की खाद्य वस्तुओं के नुकसान के बारे में भी बताया.

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राबड़ी महोत्सव शुरू करने की पहल बीकानेर में प्रोफेसर श्याम सुंदर ज्याणी ने की है. ज्याणी संयुक्त राष्ट्र की ओर से भूमि संरक्षण के सर्वोच्च सम्मान लैंड फॉर लाइफ अवॉर्ड से सम्मानित पर्यावरण कार्यकर्ता हैं. ज्याणी ने किसान तक को बताया कि बीकानेर के राजकीय डूंगर कॉलेज में गांधी संस्थागत वन में कार्यक्रम आयोजिक किया गया. इसमें शहर के कई गणमान्य लोग शामिल हुए.

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इनमें बीकानेर रेंज पुलिस महानिरीक्षक ओम प्रकाश, आर्मी डिवीजन के ब्रिगेडियर वैभव अग्रवाल, कॉलेज के कई प्रोफेसर, किसान और आम लोगों ने बड़ी संख्या में शिरकत की. साथ ही इस अभियान को दूसरे राज्यों और शहरों में भी सोशल मीडिया के माध्यम से पहुंचाया गया है. 

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ज्याणी की पहल पर पर्यावरण पाठशाला नेटवर्क से जुड़े हज़ारों शिक्षकों में जगह -जगह कार्यक्रम आयोजित किए. बीकानेर में शिक्षा निदेशालय पर सैंकड़ों शिक्षकों ने राबड़ी का सेवन किया. वहीं, हनुमानगढ़ ज़िले के भादरा में इंदिरा रसोई को राबड़ी दिवस से जोड़ते हुए पारिवारिक वानिकी एडवाइज़री बोर्ड सदस्य पवन शर्मा ने इंदिरा रसोई में भोजन करने वालों को निःशुल्क राबड़ी पिलाकर निरोगी राजस्थान का संदेश दिया.

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इसी तरह सूरतगढ़ में वृक्ष मित्र समिति ने विशेष योग्यजनों को राबड़ी सेवन करवाया. सूरतगढ़, रायसिंहनगर, राजियासर, गजसिंहपुर, बाड़मेर, अलवर, सरदारशहर, सीकर, लूनकरणसर, हनुमानगढ़ में राबड़ी दिवस का आयोजन किया गया. पूरे कार्यक्रम में किसी भी जगह प्लास्टिक का उपयोग नहीं किया गया. इसीलिए यह पहल पर्यावरण के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है.

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किसान तक से बातचीत में प्रोफेसर ज्याणी कहते हैं, “कुछ दशक पहले तक हमारे बुजुर्गों का मुख्य भोजन मोटे अनाजों से बनी चीजें ही हुआ करती थीं. इनमें राबड़ी, बाजरे की रोटी, दाल मुख्य थीं, लेकिन धीरे-धीरे बाजारवाद की चमक में ये सब कम होता गया, लेकिन अब जलवायु परिवर्तन के दौर में मोटे अनाजों की जरूरत फिर से है. इसीलिए हमारे पूरे समाज को वापस अपनी जड़ों में लौटना होगा. क्योंकि बाजरा जैसा मोटा अनाज ना सिर्फ कम पानी, अधिक गर्मी और रेतीली जमीन में होता है बल्कि इसमें भरपूर पोषक तत्व होते हैं.”