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Natural Farming : बांदा के इस किसान का विदेश तक बज रहा है डंका, जानें पूरी कहानी

Natural Farming : बांदा के इस किसान का विदेश तक बज रहा है डंका, जानें पूरी कहानी

यूपी में बुंदेलखंड का बांदा जिला पिछले कुछ दशकों से भीषण जल संकट और किसानों की बदहाली के लिए बदनाम रहा है. मगर इसी बांदा जिले में किसानों ने खेती की परंपरागत पद्धति को सहारा बनाकर पर्यावरण संतुलन के कारगर उपाय के तौर पर पेश किया है. खेती की इस विधा का नाम है 'आवर्तनशील खेती' और इसका मूल मंत्र है, धरती से जितना लो, कम से कम उतना ही धरती को वापस भी दो.

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देश-दुनिया से लोग प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह की आवर्तनशील खेती का तरीका सीखने आ रहे हैं. Graphics- संदीप भारद्वाज देश-दुनिया से लोग प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह की आवर्तनशील खेती का तरीका सीखने आ रहे हैं. Graphics- संदीप भारद्वाज

‘हमारे खेतों का कोई शत्रु नहीं होता, सभी मित्र होते हैं. ना कीट और ना पशु-पक्षी. इन्हें अपने खेतों से भगाने की नहीं, बल्कि नियंत्रित करने की आवश्यक्ता होती है. यहां तक कि जिन्हें शत्रु कीट कहा जाता है, उन्हें भी सिर्फ नियंत्रित करने की ही आवश्यक्ता होती है. प्रकृति ने नेचुरल पेस्टिसाइड भी दे रखे हैं और नेचुरल फर्टिलाइजर भी. अगर इनका समझ-बूझ के साथ प्रयोग किया जाए तो घर में अन्न और धन का भंडार भर सकता है.’ सुनने में ये थ्योरी थोड़ी अटपटी जरूर लग सकती है. लेकिन बांदा के बड़ोखर खुर्द गांव के प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह ने अपनी तीन दशक की खेती से इसे सफल भी साबित किया है. उन्होंने खेती के इस नए तरीके को आवर्तनशील खेती का नाम दिया है, जो देश ही नहीं पूरी दुनिया में तेजी से पॉपुलर हो रहा है. आज उनके पास दुनिया के कई देशों के किसान आवर्तनशील खेती का तरीका सीखने आ रहे हैं और अपने देश में जाकर इसे व्यवहार में ला रहे हैं. 

बांदा का नाम सुनते ही सूखी जमीन और बदहाल किसान की तस्वीर जेहन में  उभरती है. मगर, यहां के प्रगतिशील किसान ने खेती की अपनी पद्धति से इस स्याह तस्वीर में नम जमीन पर हरे भरे बाग और मुस्कुराते किसानों के रंग भर दिए हैं. बीते 3 दशक से खेती की जिस विधा काे अपना कर उन्होंने देश-दुनिया के लोगों को उम्मीद की एक किरण दिखाई है, उसे वह 'आवर्तनशील खेती' कहते हैं. खेती के इस मॉडल की खूबियों को जानने और समझने के लिए देश विदेश के हजारों लोग बड़ोखर खुर्द में 'प्रेम सिंह की बगिया' काे अपना ठिकाना बना रहे हैं. आवर्तनशील खेती के स्वरूप, किसान और कुदरत को इससे होने वाले फायदे एवं भावी पीढ़ियों के लिए इस खेती की उपयोगिता जैसे तमाम ज्वलंत मुद्दों पर प्रेम सिंह ने 'किसान तक' से तफसील से चर्चा करते हुए बताया कि उनकी नजर में तकनीकी तौर पर खेती एक विज्ञान है और वैचारिक तौर पर समग्र दर्शन है.

खेती का दर्शन

दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी रहे प्रेम सिंह ने खेती किसानी के भी दार्शनिक पहलू को रेखांकित किया है. उनका कहना है कि महज जोतने, बोने, काटने और बेचने का नाम खेती नहीं है. इससे बहुत आगे जाकर खेती, अपने आप में एक दर्शन है. एक ऐसा दर्शन, जिसे समझना बहुत जटिल नहीं है. प्रकृति के सीधे सरल सिद्धांतों के साथ कदमताल करते हुए खेती के दर्शन को बेहद आसानी से समझा जा सकता है. उनकी दलील है कि खेती पूरी तरह से प्रकृति से जुड़ा काम है और प्रकृति, खेती से जुड़े मूल कारकों जल, वायु, ताप, उर्वरक और ऊर्जा के बीच संतुलन कायम करने की दरकार रखती है.

'प्रेम सिंह की बगिया' की ऊपर से ली गई तस्वीर. ये सिर्फ बाग ही नहीं है, बल्कि यहां पर बाग के अलावा खेती और पशुपालन का प्रकृति से तालमेल दिखता है.
'प्रेम सिंह की बगिया' में बाग, खेती और पशुपालन का प्रकृति से तालमेल दिखता है. फोटो-किसान तक

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धैर्य की पूंजी से होती है आवर्तनशील खेती

प्रेम सिंह का दावा है कि 'आवर्तनशील खेती' ही किसानों को समृद्धि की राह दिखा सकती है. खेती की इस विधा का परिचय कराते हुए वह‍ कहते हैं कि इस खेती को 'धैर्य और संतोष' की पूंजी से ही किया जा सकता है. इस खेती के तीन आधार बिंदु हैं. पहला संतुलन, दूसरा सततता या आवर्तनशीलता और तीसरा न्याय.

उन्होंने बताया कि यहां संतुलन का अर्थ है, जल, वायु, ताप, ऊर्जा और उर्वरता का संतुलन. यह संतुलन बनाने के लिए हम अपने खेत को एक निश्चित अनुपात में विभाजित करते हैं. खेत में जल संतुलन कायम करने के लिए हमें खेत में जितना पानी चाहिए, उसके अनुपात में हमारे पास तालाब हो. वायु संतुलन के लिए खेत के एक तिहाई हिस्से में फलों की खेती के लिए बाग हो, उर्वरता संतुलन हेतु हमारे खेत में खाद की जरूरत को पूरा करने के लिए पशुधन हो और इन तीनों का संतुलन कायम हो जाने पर वायु और ताप का संतुलन स्वत: कायम हो जाता है.

खेत से जितना लें, उतना वापस भी दें

प्रेम सिंह ताकीद करते है कि इन संतुलनों को बनाए रखने के लिए किसान को 'लेन देन' का नियम का पालन करना जरूरी है. इस नियम के मुताबिक हम अपने खेत से जितना उत्पादन किसी ठोस तत्व के रूप में ले रहे हैं, कम से कम उतनी ही मात्रा में उर्वरक आदि के रूप में खेत को वापस दिया जाए. किसान द्वारा खेत को जो कुछ वापस मिलता है वही उसका सम्पूर्ण पौष्टिक आहार होता है. 

उन्होंने बताया कि इन उर्वरकों की पूर्ति के लिए हमारे पास विभिन्न प्रकार के पशु होने चाहिए. एक प्रकार के पशु से किसान का काम चलने वाला नहीं है, क्योंकि जमीन को मिनरल्स की पूर्ति करने के लिए बकरी की जरूरत है, कैल्शियम और फास्फोरस के लिए मुर्गा, मुर्गी और बतख जैसे पक्षी चाहिए तथा माइक्रोब्स और कार्बन की पूर्ति के लिए गाय चाहिए. इन सभी पशुओं के गोबर या बीट को तमाम तरह की पत्तियों के साथ मिक्स कर लिया जाए तो फिर वह, खेत के लिए एक सम्पूर्ण पौष्टिक आहार बन जाता है.

उनका क‍हना है कि हम खेत से जितना उत्पादन लेते हैं, उस उत्पादन को यह उर्वरता सुरक्षित रखती है. इससे मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है, साथ ही, इससे धरती में ताप संतुलन भी बढ़ेगा. इसके अलावा हम गोबर से बायोगैस भी ले सकते हैं और सोलर पंप आदि लगा कर ऊर्जा संतुलन काे प्राप्त कर सकते हैं. सौभाग्य की बात है कि आज तालाब बनवाने से लेकर बायोगैस और सोलर पंप देने तक, सरकार किसानों की भरपूर मदद कर रही है. इससे आवर्तनशील खेती में 'संतुलन' वाला पार्ट पूरा करने में मदद मिलती है.

आवर्तनशील खेती के तकनीकी एवं दार्शनि‍क पहलुओं को साझा करते किसान प्रेम सिंह, फोटो किसान तक

भावी पीढ़ी को ध्यान में रख कर करें खेती

पुरखों की बातों का जिक्र करते हुए प्रेम सिंह कहते कि खेती से समृद्ध होने के लिए और खेती को सतत बनाने के लिए यह जरूरी है कि ''खेती को अपने पेट के लिए किया जाए, बाजार में बैठे सेठ के लिए खेती न की जाए.'' उनकी दलील है कि किसान जब मंडी में बैठे सेठ साहूकारों को अपनी उपज बेचने के लिए खेती करता है, तभी वह बाजार के चंगुल में फंसना शुरू हो जाता है और यहीं से किसानों पर कर्ज का दुश्चक्र भी शुरू होता है. खेती को सस्टेनबल बनाने की बात करने वाला आवर्तनशील खेती का दूसरा तत्व इसी दुश्चक्र से किसान को बचाता है.

वह बताते हैं कि खेती की सस्टेनेबिलिटी यानि सततता या आवर्तनशीलता का अर्थ खेती की जमीन काे पहले बताए गए पांच संतुलनों के चक्र में बांधना है. इसका मकसद है कि जिस प्रकार हमारे पुरखों ने इस धरती को जैसा सजा सजाया हमें दिया है, वैसी ही हरी भरी धरती हम अपनी भावी पीढ़ियों को दे सकें. इसमें हम यह समझने की कोशिश करते हैं कि हमारे पुरखों ने जमीन को उपजाऊ बनाने की विधि, बीजों को सुरक्षित रखने और बोने की विधि, कृष‍ि उपज से मिले अन्न और फलों को खाने और संजोने की विध‍ि, जैसी तमाम बातों को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे कैसे बढ़ाया है. यह सब जानना और आगे बढ़ाना हमारी जिम्मेदारी है. इससे खेत और किसान, दोनों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है, जिससे कृष‍ि लागत निरंतर कम होती जाती है और किसान पर कर्ज के बोझ का खतरा भी खत्म हो जाता है.

 

औरों का भी हाे भला

प्रेम सिंह ने बताया कि आवर्तनशील खेती का तीसरा तत्व 'न्याय' है, जो खेती की इस विधा को सर्वकल्याण से स्वकल्याण के संदेश से जोड़ता है. इसके तहत हम यह जानने की कोशिश करते हैं कि हमें खेती करते हुए अपने समाज में कैसे उपकार पूर्वक जीना है. इसके लिए हम खेती में आवर्तनशीलता को बनाए रखने के लिए अपने खेत के एक तिहाई हिस्से में बागवानी करते हैं, एक तिहाई में पशुपालन और चारागाह आदि का प्रबंधन करते हैं तथा तीसरे एक-तिहाई हिस्से पर अपनी खाद्यान्न पूर्ति के लिए अनाज, तिलहन आदि उगाते हैं.

उन्होंने बताया कि खेत में उगी हर चीज से हमारे परिवार और परिजनों की जरूरतें पूरी होने के बाद जो बचता है, उसे प्रोसेस करके उपभोक्ताओं तक पहुंचाते हैं या उपभोक्ता को अपने पास बुलाने की कोशिश करते हैं. इससे हमें जो आय हो, उसके एक हिस्से काे अपने से कमजोर लोगों के साथ बांट कर बाजार पर आश्र‍ित अपनी अन्य जरूरतें पूरी करते हैं. इस प्रकार इन 5 चरण में 3 तत्वों के आधार पर आवर्तनशील खेती होती है.

पुरखों की लीक पर चल कर मिला समाधान

आवर्तनशील खेती से खुद को जोड़ने के बारे में प्रेम सिंह ने बताया कि शुरू में वह भी केमिकल फार्मिंग करते थे. उन्होंने कहा, ''3-4 साल में ही हमें पता चल गया कि यह खेती सस्टेनबल नहीं है. यह सब लंबे समय तक नहीं चल पाएगा. अगर हम केमिकल फार्मिंग करते रहे तो, या तो हम खेती करना  छोड़ देंगे या फिर खेती, हमें छोड़ देगी. इसके बाद हमने धीरे धीरे धीरे तमाम विकल्पों पर काम किया.'' 

उन्होंने कहा कि इसी बीच हमने अपने पूर्वजों के बताए तरीके से खेती करते हुए तमाम प्रयोग किए और इनका अध्ययन भी किया. इस दौरान मध्यस्थ दर्शन पढ़ते हुए खेती की आवर्तनशील पद्धति से परिचय हुआ. इस पर लगातार काम करते हुए 3 दशक में किए गए तमाम सफल एवं असफल प्रयोगों के बाद आज यह मॉडल खड़ा हो सका है. इसे अब देश के तमाम हिस्सों में अपनाया गया है और इस मॉडल पर खेती के अभिनव प्रयोग भी हो रहे हैं.

रोजगारोन्मुखी है आवर्तनशील खेती

उन्होंने बताया कि आवर्तनशील खेती को अपनाने के बाद उनकी आय बढ़ी और आज 5 एकड़ के इस छोटे से खेत में 10 लोगों को वह साल भर का रोजगार देने में सक्षम हो गए हैं. उन्होंने बताया कि  यह सब कैसे हुआ, यह हमें बहुत साल बाद समझ में आया. हमने जाना कि इस पद्धति से काम करते रहने के कारण फार्म में वही संतुलन बन गया है, जिनकी अभी मैंने चर्चा की. उन्होंने कहा कि जल, वायु, ताप और ऊर्जा संतुलन बन जाने के बाद ही किसान भी सुखी हो रहा है, समाज को पौष्टिक आहार मिल रहा है, पर्यावरण संतुलन में भी हमारी भागीदारी हो रही है और इस प्रकार देश की उन्नति में भी हम किसानों की भागीदारी तय हुई है.

वह उदाहरण देते हुए बताते हैं कि जैसे हमारे बाग में हर साल लगभग 300 कुंतल आम का उत्पादन होता है. इस आम का हम अकेले उपभोग तो कर नहीं सकते हैं. ऐसे में इस आम को अन्य लोगों तक पहुंचा कर खाद्यान्न सुरक्षा में हमारी भागीदारी सुनिश्चित हो रही है. इसी तरह हमारे पास 40 बकरियां और 25 गाय भैंस हैं. इनसे जो दूध का उत्पादन हो रहा है, वह भी इस फार्म में रहने वाले लोगों के अलावा अन्य लोगों की जरूरत को पूरा करता है. स्पष्ट है कि आवर्तनशीलता के लिहाज से अपने फार्म का संतुलित विभाजन करने से किसान भी समृद्ध होता है, प्रकृति का संतुलन भी बना रहता है और देश भी समृद्ध होता है.

आवर्तनशील खेती में जो खेत रोजगार के जितने ज्यादा अवसर दे,वही खेत आदर्श है. फोटो: किसान तक

किसान की समृद्धि

इस विधा से किसान की समृद्धि के सवाल पर प्रेम सिंह ने स्पष्ट किया कि समृद्धि का संबंध पैसे की अधिकता से नहीं है. इससे इतर हमारी जरूरतों की पूर्ति और जीवन में जो काम हम कर रहे हैं, उससे मिलने वाली संतुष्टि के मिले जुले अहसास को हम समृद्धि मानते हैं. हमने अब तक के अनुभव से समझा है कि इस समृद्धि के 6 सूत्र हैं. पहला खेती के संसाधनों के मामले में किसान और खेत को आत्मनिर्भर बनाना. खेती की लागत, खेत से ही आए, हमारे परिवार में उपभोग की यथा संभव वस्तुएं भी खेत से आएं तो आत्मनिर्भरता का सूत्र पूरा हो पाता है.

उन्होंने कहा कि दूसरा सूत्र है, जल, वायु, ताप और ऊर्जा का संतुलन बनाना, जिसे मैं पहले ही बता चुका हूं. इन सभी संतुलन को पूरा करना हमारी जिम्मेदारी है, नहीं तो हम अगली पीढ़ी को असंतुलित खेती सौंप कर इस धरती से रुखसत होंगे. तीसरा सूत्र है उर्वरता का संतुलन. इसमें हम देखते हैं कि हम अपने खेत से जितनी ठोस उपज लेते हैं, उसके अनुपात में खेत काे ठोस खाद के रूप में वापस कर पा रहे हैं या नहीं. मसलन यदि हम 1 एकड़ खेत से 100 कुंतल उपज लेते हैं, तो हमें खेत को 150 कुंतल खाद देनी पड़ेगी. इसके लिए हमें पशु पालने पड़ेंगे. पत्ती की खाद लेने के लिए पेड़ लगाने होंगे.

प्रेम सिंह ने बताया कि चौथा सूत्र अधिकतम लोगों को अपने खेत में रोजगार देने की क्षमता पैदा करना है. इसके लिए हम पशुपालन करते हैं. इसमें गाय, भैंस, बकरी और मुर्गा मुर्गी आदि को पालने के लिए हमें लोगों की जरूरत होती है. इसके अलावा प्रोसेसिंग और मार्केटिंग में भी हमें कम से कम 5 - 7 लोग चाहिए होते हैं. इस प्रकार हमारे फार्म पर औसतन दर्जन भर लोगों को साल भर का रोजगार मिलता है.

उनके मुताबिक समृद्धि का पांचवां सूत्र है पौष्टिकता का सिद्धांत. उन्होंने कहा कि ज्यादा उत्पादन के लालच में पड़कर अपने खाद्यान्न की पौष्टिकता से समझौता करना उसमझदारी नहींं है. प्राकृतिक तरीके से उपजाए गए जैविक खाद्यान्न पौष्टिक होते हैं. इस पौष्टिकता को मेंटेन करना हमारी सामाजिक जिम्मेदारी है.

छठा सूत्र है किसान को समृद्ध बनाना. उन्होंने कहा कि वैज्ञानिक खोज पर आधारित कैमिकल फार्मिंग सहित अभी हम जितने भी तरह की खेती कर रहे हैं, उसमें उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन किसान कर्ज से लद गया. मुझे नहीं मालूम, बढ़ा हुआ उत्पादन कहां चला गया. मगर आवर्तनशील खेती में सभी संबद्ध कारकों को संतुष्ट एवं संतुलित करते हुए किसान अपनी संतुष्टि के साथ समृद्धि को सुनिश्चित करता है. यह सब ए‍क किसान को अपने आप समृद्ध बनाता है. इसके लि‍ए पैसों का हिसाब किताब रखने की ज्यादा जरूरत नहीं पड़ती है.

पशुधन का महत्व

आवर्तनशील खेती में पशुधन के अनिवार्य महत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि खेती की इस विधा में गौ पालन से आगे जाकर हर तरह के पशु पक्षी, जिनमें मुर्गा मुर्गी, भेड़ बकरी और गाय भैंस सहित तमाम तरह के पशुधन की बात कही गई है. इसके पीछे छुपे संदेश को बताते हुए प्रेम सिंह ने कहा कि इस धरती के विकास क्रम को यदि हम ध्यान से देखें तो धरती में जल, वायु और ताप संतुलन के बाद सबसे पहले पेड़ पौधे आए. पेड़ पौधे, प्रकाश संश्लेषण यानि फोटोसिंथेसिस के माध्यम से जमीन पर कार्बन तत्वों के वाहक बने. इससे धरती पर ऑक्सीजन का स्तर मेंटेन हुआ और इसके बाद पशु पक्षी एवं अन्य जीव जंतु पनपे.

उन्होंने कहा कि कालांतर में खेती के विकास क्रम में जल, वायु, ताप और ऊर्जा संतुलन में भूमिका निभाने वाले गाय से लेकर मछली तक सभी जीव जंतु पशुपालन का हिस्सा बन गए. वास्तव में यह बड़ी ही रोचक प्रक्रिया है. इसमें हर प्रकार की वनस्पति से जमीन के अंदर से कोई एक विशेष प्रकार का मिनरल मिलता है. पत्ती के रूप में बकरी इस मिनरल को खाती है और अपने अपशिष्ट के रूप में इसे ज्यादा समृद्ध करके वापस धरती को दे देती है. इसी प्रकार गोधन के गोबर से सूक्ष्म जीवों की आपूर्ति होती है. मुर्गा मुर्गी और बतख से कैल्शियम और फास्फोरस की पूर्ति होती है. अब हम किसानों की यह जिम्मेदारी है कि हम इन तत्वों को एकत्र कर धरती को अपने खेतों के माध्यम से देकर मिट्टी की सेहत को पुष्ट करते रहें. 

पशुधन, बढ़ता हुआ धन है

उन्होंने कहा कि अपने खेत के आकार के मुताबिक ही किसान अपना पशुधन रखना है. जैसे यदि मेरा 1 एकड़ का खेत है और उससे हम साल भर में 25 कुंतल उत्पादन लेते हैं तो हमें अपने खेत काे कम से कम 35 कुंतल खाद देनी होगी. अब एक गाय औसतन एक दिन में 10 किग्रा तक गोबर देती है. इससे साल भर में 36 कुंतल गोबर की खाद हमें मिल जाएगी. स्पष्ट है कि एक एकड़ खेत के लिए एक गाय, 4-5 बकरी और दर्जन भर मुर्गा मुर्गी रखना पर्याप्त है.

उन्होंने कहा कि सही मायने में किसानों के लिए पशुधन हर नजरिए से बढ़ता हुआ धन है. क्योंकि पशुपालन से सिर्फ खाद की ही पूर्ति नहीं होती है, बल्कि किसान की अन्य प्रकार से आय भी होती है. उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए बताया कि‍ उन्होंने तीन साल पहले 4 बकरी और 1 बकरे से शुरुआत की थी. आज उनके पास 40 से ज्यादा बकरियां हैं. इसी प्रकार गाय भैंस और मुर्गा मुर्गी में भी गुणात्मक वृद्धि होती है. इसीलिए पशुधन को किसान के लिए हमेशा बढ़ता हुआ धन माना गया है.

उन्होंने बताया कि बकरियों और गायों से उन्हें दूध की पूर्ति होती है, 50 मुर्गियों से प्रतिदिन 500 रुपये तक के अंडे मिल जाते हैं. इसी प्रकार एक गाय अपने एक लेक्टेशन पीरियड में औसतन 1000 लीटर दूध देती है. इससे दूध की पूर्ति के अलावा वह घी बनाकर बेचते हैं. जाे मट्ठा ़बचता है, उसका उपभोग करने के बाद खाद बनाने में भी उसका इस्तेमाल करते हैं. इस आधार पर उन्होंने अनुमान जताया कि आवर्तनशील खेती पर आधारित एक हेक्टेयर के खेत से औसतन 4 लाख रुपये सालाना शुद्ध आय हाे जाती है.

प्राकृतिक खेती में मुर्गी पालन हो या गौपालन, खेती पशुधन के बिना अधूरी है, फोटो: किसान तक

युवाओं का आकर्षण बन रही आवर्तनशील खेती 

प्रेम सिंह ने बताया कि हमारे फार्म पर 2011 से किसानों के लिए 'आवर्तनशील खेती एवं फॉर्म डिजाइनिंग' नाम से 4 दिन का प्रशिक्षण कोर्स, साल में कम से कम 5 बार होता है. पिछले 10 सालों में हजारों लोग यह ट्रेनिंग ले चुके हैं. इसमें किसानों को आवर्तनशील खेती के तौर तरीकों से अवगत कराया जाता है. उनका दावा है कि अभी तक लगभग 24 देशों के लोग यहां आ चुके हैं. उन्होंने बताया कि ट्रेनिंग के दौरान उन्हें सबसे बड़ी बात यह दिखी कि उनके पास एक भी पुराने किसान नहीं आ रहे हैं, बल्कि अब नवयुवक खेती की इस विधा की ओर खूब आकर्षित हो रहे हैं.

उन्होंने दावा किया कि तमाम युवक नौकरी छोड़ कर खेती के क्षेत्र में आ रहे है, कोई उद्योग धंधे छोड़कर आ रहा है और कोई जूनून में आ रहा है. बहुत से किसानों के बेटे बेटियां भी हमारे यहां यह खेती सीखने आते हैं और वापस जाकर इन लोगों ने अपने फार्म में इसे लागू भी किया है. प्रेम सिंह ने यह देखकर मन को बहुत संतोष होता है कि भावी पीढ़ी सही दिशा में सोचने के साथ कुछ अलग कर रही है. यह भविष्य के लिए अच्छा संकेत है. 

उन्होंने बताया कि हाल ही में प्राकृतिक एवं जैविक खेती को बढ़ावा दे रही अंतरराष्ट्रीय संस्था ओएफएआई ने भी आवर्तनशील खेती की अवधारणा को वैश्विक स्तर तक ले जाने की मुहिम तेज कर दी है. बकौल प्रेम सिंह ''मेरा मानना है कि यह जाे कुछ भी हो रहा है, वह खेती और प्रकृति के बीच संतुलन कायम होने के बाद अपने आप होने लगा है. बिना किसी प्रचार किए, देश दुनिया के लोगों का यहां आना और इस खेती को अपनाना, यह बताता है कि इसे लेकर लोगों का सकारात्मक रुझान ह‍ै.

समाधान बताने वाली खेती

आवर्तनशील खेती के भविष्य के बारे में उन्होंने कहा कि खेती किसानी संकट के दौर से गुजर रही है. किसान बहुत परेशान है. किसान को आवर्तनशीलता पर आधारित प्राकृतिक खेती अपनाने पर ही इन परेशानियों से निजात मिलेगी. उन्होंने इसकी वजह बताते हुए कहा कि जैसे हम अपने एक तिहाई खेत में बाग लगाते हैं, उसे अपनाकर पूरा गांव अपने एक तिहाई हिस्से में बाग लगाए, उसी प्रकार पूरा प्रदेश और फिर पूरे देश और दुनिया के एक तिहाई हिस्से को वन बाग से युक्त करके पर्यावरण असंतुलन की समस्या स्वत: दूर हो सकती है. इसलिए इसे वैश्वि‍क समस्याओं का समाधान बताने वाली 'सस्टेनेबल एग्रीकल्चर' कहते हैं. इसी प्रकार पशुधन के महत्व को समझ कर किसान आवारा पशुओं की समस्या से स्वत: निजात पा सकेगा. खेती की इसी विधा में किसान और आम इंसान की समृद्धि का सूत्र समाया हुआ है.

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आवर्तनशील खेती को मिलेगा राष्ट्रीय खेती का दर्जा

प्रेम सिंह ने कहा कि वह अपनी पूरी ताकत से इस खेती के महत्व काे लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ लोगों को यह बात समझ में आ भी रही है. उन्होंने कहा कि हम अगर 30 वर्षों से टिके हैं, इसका मतलब है कि यह बात असरकारी साबित तो हो रही है. उन्होंने कहा कि एक सच यह भी है कि इस विधा में छुपा संदेश, एक निश्चित चेतना स्तर से कम चेतना वालों को समझ में नहीं आएगा. इसलिए ऐसा मेरा विश्वास है कि जब ऐसी चेतना स्तर के व्यक्ति सरकारों में पहुंचेंगे तो वे इसे राष्ट्रीय खेती के रूप में स्वीकार कर लेंगे.

उन्होंने कहा कि भारत को यदि पुन: विश्व गुरु बनना है, तो किसानी के अलावा कोई दूसरा तरीका नहीं है. भारत जब विश्व गुरु था तब पूरे विश्व की जीडीपी में देश की भागीदारी 22 से 27 फीसदी थी. यह तब था जब हर घर में उद्योग थे, यह तब था जब हर गांव में तालाब थे, वन बाग थे और यह तब था, जब हंसता हुआ किसान था.