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World Environment Day: जब पेड़ों से चिपक गए थे लोग, एक 5वीं पास महिला बन गई थी हीरो, पढ़ें ये जरूरी कहानी

World Environment Day: जब पेड़ों से चिपक गए थे लोग, एक 5वीं पास महिला बन गई थी हीरो, पढ़ें ये जरूरी कहानी

पेड़ और पर्यावरण हमारे जीवन के लिए कितने जरूरी हैं ये बात शायद बताना जरूरी नहीं है. ये बताना और समझना जरूरी है कि इन्हें बचाने के लिए अहम कदम उठाने होंगे. हर साल पर्यावरण दिवस मनाने का उद्देश्य यही है कि हम अपने पर्यावरण को जीवन के अनुकूल बनाएं ना कि जीवन के लिए खतरनाक. इस बार World Environment Day (5 जून) पर जानिए एक ऐसे आंदोलन की कहानी जिसकी चर्चा विदेशों तक हुई.

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चिपको आंदोलन क्या है?, फोटो साभार: Madan Kaushik, KOO चिपको आंदोलन क्या है?, फोटो साभार: Madan Kaushik, KOO

विश्व पर्यावरण दिवस 2023 के मौके पर अगर पर्यावरण संरक्षण की बात हो और विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन का जिक्र ना किया जाए तो ये बात जैसे अधूरी ही रह जाएगी. सत्तर के दशक में किया गया यह आंदोलन आज भी समय की जरूरत है. जैसे आज भी पेड़ों को बचाने के लिए ऐसी ही किसी मुहिम की मांग किया जाना जरूरी हो. इस आंदोलन ने कई लोगों को देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी हीरो बना दिया था. आज भी जब पेड़ों से चिपके हुए लोगों की वो तस्वीरें सामने आती हैं तो जेहन में एक आंदोलन सा उमड़ता है और यह अहसास कराता है कि जीवन पर्यावरण से ही है. अगर पर्यावरण ही खराब हो गया तो जीवन पर भी संकट मंडराएगा ही.  इस पर्यावरण दिवस एक बार फिर याद करते हैं चिपको आंदोलन की कहानी

चिपको आंदोलन, पर्यावरण की रक्षा का आंदोलन था, जो समय-समय पर देश के कई कोनों में शुरू हुआ. अगर बात करें सबसे पहले शुरुआत की, तो वर्तमान उत्तराखंड के चमोली में सबसे पहले इसने आकार लिया. यहां लोगों ने पेड़ों की कटाई का विरोध करने के लिए एक अनोखा तरीका अपनाया जो दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया. इस आंदोलन की अगुवाई के लिए पर्यावरण प्रेमी सुंदरलाल बहुगुणा और गौरा देवी को याद किया जाता है.

चिपको आंदोलन की शुरुआत 

बात जनवरी, 1974 की है. रैंणी गांव के निवासियों को पता चला कि उनके इलाके से जो सड़क निकल रही है उसके लिए 2451 पेड़ों की कटाई होगी. पेड़ों को अपना परिजन समझने वाले गांववासियों में इस खबर से हड़कंप मच गया. जिसके बाद 23 मार्च, 1974 के दिन आदेश के खिलाफ, उत्तराखंड के गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ. जिसमें गौरा देवी, महिलाओं का नेतृत्व कर रही थीं. वहीं प्रशासन ने सड़क निर्माण के दौरान हुए नुकसान का मुआवजा देने के लिए तारीख 26 मार्च तय की था, जिसे लेने के लिए गांववालों को चमोली जाना था.

वन विभाग ने चली थी चाल

दरअसल ये वन विभाग की एक चाल थी. योजना ये थी कि जब 26 मार्च को गांव के सभी पुरुष चमोली में मुआवजा लेने के लिए पहुंचेंगे, तभी समाजिक कायकर्ताओं को बातचीत के लिए गोपेश्वर बुला लिया जाएगा. इसी दौरान ठेकेदारों से कहा जाएगा कि 'वो मजदूरों को लेकर चुपचाप रैंणी पहुंचें और पेड़ों की कटाई शुरू कर दें.' लेकिन योजना सफल नहीं हुई. जब ठेकेदार और मजदूर जंगलों को काटने पहुंचे तो उनकी इस हलचल को एक लड़की ने देख लिया. उसने ये खबर गौरा देवी को दे दी, जिसके बाद गौरा देवी फौरन हरकत में आ गईं.

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फिर गौरा देवी गांव में मौजूद 21 महिलाओं और कुछ बच्चों को लेकर जंगल की ओर चल पड़ीं. कुछ ही देर में महिलाएं, मजदूरों के झुंड के पास पहुंच गईं. गौरा देवी ने मजदूरों से कहा, 'भाइयों, यो जंगल हमारा मायका है, इससे हमें जड़ी-बूटी, सब्जी-फल और लकड़ी मिलती है. जंगल को काटोगे तो बाढ़ आएगी, हमारे बगड़ बह जाएंगे.’ वहीं ठेकेदार और वन विभाग के लोगों ने महिलाओं को धमकाया, यहां तक कि गिरफ्तार करने की धमकी भी दी, लेकिन महिलाएं अडिग रहीं. 

'लो मारो गोली और काट लो हमारा मायका'

ठेकेदार ने जब बंदूक निकालकर महिलाओं को डराना चाहा, तो गौरा देवी ने सामने खड़े होकर गरजते हुए कहा, 'लो मारो गोली और काट लो हमारा मायका', इस पर सभी मजदूर सहम गए. गौरा देवी के इस साहस और कहने पर सभी महिलाएं पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गईं और उन्होंने कहा, 'इन पेड़ों के साथ हमें भी काट डालो.' ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को हटाने की हर कोशिश की, लेकिन गौरा देवी ने अपना विरोध जारी रखा. अंत में विवश होकर मजदूरों को वापस लौटना पड़ा.

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आंदोलन ने गौरा देवी को बना दिया हीरो

चिपको आंदोलन ने पांचवीं तक पढ़ी ‘गौरा देवी’ को उत्तराखंड का ही नहीं, बल्कि पूरे देश का हीरो बना दिया. विदेशों में उन्हें ‘चिपको वुमेन फ्रॉम इंडिया’ कहा जाने लगा. वहीं चिपको आंदोलन ने देश में पर्यावरण संरक्षण को बड़ा मुद्दा बना दिया. बाद में यही आंदोलन हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, बिहार, तक फैला और सफल भी रहा. इस आंदोलन को बड़ी सफलता तब मिली जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिमालय के वनों में पेड़ों की कटाई पर 15 सालों तक प्रतिबंध लगा दिया था.