scorecardresearch
पशुधन क्षेत्र में पारंपरिक चिकित्सा लागू करने से देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी

पशुधन क्षेत्र में पारंपरिक चिकित्सा लागू करने से देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी

भारत वैदिक काल से पशुधन स्वास्थ्य क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान को लागू करने वाला प्रमुख देश रहा है. आयुर्वेद यह मानता है कि मनुष्य, मवेशी और वनस्पतियों का स्वास्थ्य एक दूसरे से संबंधित है, एक दूसरे पर आश्रित है. इसी आधार पर आयुर्वेद 'वसुधैव कुटुंबकम' और हर प्राणी के अच्छे स्वास्थ्य की अवधारणा पर बल देता है.

advertisement
पशुधन क्षेत्र में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति बड़ा रोल निभा सकती है पशुधन क्षेत्र में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति बड़ा रोल निभा सकती है

डॉ. नीलम पटेल और डॉ. अतिरा एस

पशुधन हमारे कृषि क्षेत्र का प्रमुख हिस्सा है जिसका भारतीय कृषि क्षेत्र में 30.1 फीसदी का योगदान है. इसलिए आर्थिक वृद्धि, टिकाऊ कृषि व्यवस्था, खाद्य सुरक्षा और 'वन नेशन वन हेल्थ' के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पशुधन का स्वास्थ्य प्रमुख घटक होता है. पशुधन क्षेत्र हमारे घर-परिवार के लिए केवल स्वास्थ्य और पोषण, खेती-बाड़ी के प्रमुख आदान (इनपुट्स) ही नहीं देता बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में यह जीवन-यापन का जरिया भी है.

दुग्ध उत्पादन में भारत दुनिया में शीर्ष स्थान पर है, मगर प्रति मवेशी उत्पादकता देखें तो यह वैश्विक औसत से बहुत नीचे है. उत्पादकता में मवेशियों की सेहत सबसे बड़ा रोल निभाती है. 'नेशनल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर' (1976) ने प्रति 5000 मवेशियों के लिए एक वेटनरी सुविधा या फिजिशियन की सिफारिश की थी. इस हिसाब से देश में 535.78 मिलियन पशुधन को स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए हमें लगभग 1,07,156 वेटनरी संस्थान या फिजिशयन की जरूरत है जबकि मौजूदा समय में यह संख्या 65,894 है. सो, देश में दुधारू मवेशियों की उत्पादकता को सुधारने के लिए वेटनरी संस्थानों/फिजिशयन की कमी को दूर करना सबसे प्रमुख उद्देश्य है.

पशु चिकित्सा क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 'पंचप्राण' विकास रणनीति में देश के विकास लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी समृद्ध विरासत और पारंपरिक ज्ञान को सहेजने पर जोर दिया है. भारत वैदिक काल से पशुधन स्वास्थ्य क्षेत्र में पारंपरिक ज्ञान को लागू करने वाला प्रमुख देश रहा है. आयुर्वेद यह मानता है कि मनुष्य, मवेशी और वनस्पतियों का स्वास्थ्य एक दूसरे से संबंधित है, एक दूसरे पर आश्रित है. इसी आधार पर आयुर्वेद 'वसुधैव कुटुंबकम' और हर प्राणी के अच्छे स्वास्थ्य की अवधारणा पर बल देता है. 

आयुर्वेद में वनस्पति (वृक्षायुर्वेद) और पशुओं (पशु आयुर्वेद) के लिए अलग-अलग अंग है. पशु आयुर्वेद में अलग-अलग पशुओं की बीमारी और उसके इलाज के बारे में विस्तार से बताया गया है. जैसे गाय के लिए गव्यायुर्वेद, घोड़े के लिए अश्वायुर्वेद और हाथी के लिए हस्तायुर्वेद. ऐसे में पशु चिकित्सा विज्ञान में उस पारंपरिक ज्ञान को समाहित करते हुए पशुओं के स्वास्थ्य की बाधाओं को दूर करना आज के समय की सबसे बड़ी मांग है. पशुओं के स्वास्थ्य के लिए अगर समग्र प्राकृतिक दृष्टिकोण अपनाया जाए तो उनके इलाज का भारी-भरकम खर्च, उत्पादकता में कमी और समय से पहले मार देने जैसी चुनौतियों से जूझते पशुधन उद्योग को बचाया जा सकता है. 

पारंपरिक ज्ञान का फायदा

आयुर्वेदिक पशु चिकित्सा जैसे पारंपरिक दृष्टिकोण में पशुओं के रोग निवारण और रोग नियंत्रण के लिए देश में मौजूद हर्बल संसाधनों का इस्तेमाल किया जाता है. इससे कम खर्च और बिना किसी विपरीत प्रभाव के पशुओं का उचित रखरखाव होता है. इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि अभी मनुष्यों से अधिक पशुओं में एंटीबॉयोटिक्स का इस्तेमाल हो रहा है. यह उपभोग 70-80 परसेंट तक जा पहुंचा है. 

ये भी पढ़ें: हरियाणा: शुरू नहीं हुई सरसों की सरकारी खरीद, व्यापारियों को कम दाम में उपज बेचने को मजबूर किसान

रिसर्च से प्राप्त साक्ष्य बताते हैं कि मवेशियों में होने वाली आम बीमारी जैसे थन सूजन, मुंहपका-खुरपका रोग, थन चेचक आदि के इलाज में हर्बल दवाएं बहुत कारगर हो सकती हैं. इन दवाओं के इस्तेमाल से एंटीबॉयोटिक्स के प्रयोग को भी कम किया जा सकता है. उपरोक्त बीमारियों से होने वाले आर्थिक नुकसान को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए. उदाहरण के लिए, एक स्टडी के मुताबिक पशुओं के खुरपका-मुंहपका रोग (FMD) से हर साल देश की अर्थव्यवस्था पर 26,000 करोड़ रुपये का प्रभाव पड़ता है. 

इसी तरह, पशुओं में थन सूजन रोग से दूध की उत्पादकता में भारी कमी आती है जिससे हर साल देश में 7165.51 करोड़ रुपये का आर्थिक नुकसान होता है. इस तरह के आर्थिक नुकसान को पारंपरिक पशु चिकित्सा से कम किया जा सकता है जिससे पशुधन अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा. नेशनल डेयरी डेवलपमेंट बोर्ड (NDDB) 2020-21 के सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, पारंपरिक पशु चिकित्सा से इलाज के खर्च में 30 फीसदी की कमी लाई गई है. हर महीने 10 लाख रुपये एंटीबॉयोटिक्स पर होने वाले खर्च को बचाया जा सकता है.

अगर पारंपरिक पशु चिकित्सा और हर्बल दवाओं का प्रयोग करें तो एंटी माइक्रोबियल रेसिस्टेंस (AMR) के खतरे को कम किया जा सकता है जो पशुधन और मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है. पशुओं के स्वास्थ्य के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाया जाए तो उनके सामान्य स्वास्थ्य और प्रतिरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है. इससे उत्पादकता बेहतर होगी और कम से कम बीमारियां होंगी और प्राणीजन्य रोगों की घटनाओं को कम किया जा सकेगा.

आयुर्वेदिक पशु चिकित्सा में प्रयोग होने वाले संसाधनों को स्थानीय क्षेत्रों से लिया जा सकता है जहां इसकी मांग बढ़ेगी और एक पूरा लोकल इकोसिस्टम तैयार होगा. इससे वेटनरी आयुर्वेद की एक पूरी लोकल चेन स्थापित करने में मदद मिलेगी. इससे उस पूरे इलाके का आर्थिक आधार बढ़ाने में सहयोग मिलेगा. नतीजतन, पशुधन के रखरखाव का खर्च घटेगा और पशुपालन किसानों के लिए फायदे का सौदा बनेगा. कम शब्दों में कहें तो आयुर्वेदिक पशु चिकित्सा जैसे परंपरागत तरीके अपनाकर पशुधन के स्वास्थ्य और उत्पादकता को बढ़ाना संभव है. साथ में प्राणीजन्य बीमारियां और एएमआर की चुनौतियों से पशु उद्योग में सुधार लाया जा सकेगा.

नीति और संस्थागत समर्थन

पशुधन क्षेत्र में नए तौर-तरीकों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार लगातार मदद कर रही है. 2014 में आयुष मंत्रालय और 2019 में मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय की स्थापना इसी का परिचायक है. इससे दोनों क्षेत्रों को बढ़ावा देने में मदद मिली है. साल 2021 में दोनों मंत्रालयों ने पशु चिकित्सा में आयुर्वेद और संबद्ध विज्ञान को लागू कराने के लिए एक एमओयू पर हस्ताक्षर किया. इससे शोध और विकास में मदद मिलेगी. औषधीय जड़ी बूटियों के माध्यम से पशु चिकित्सा विज्ञान के लिए गुणवत्तापूर्ण दवाओं में नए फॉर्मूलेशन की शुरुआत होगी. 

एमओयू साइन होने से आयुर्वेद का इस्तेमाल कर पशु स्वास्थ्य, पशुपालक समुदाय और पूरे समाज के लिए एक रेगुलेटरी मेकेनिज्म बनाने में मदद मिलेगी. इस पूरे सेक्टर को एकसाथ लाने में भी इससे बड़ी सुविधा मिलेगी. एमओयू के अंतर्गत शिक्षा पर एक समिति का गठन किया गया है जो आयुर्वेदिक पशु चिकित्सा (AVM) में थियरी और प्रैक्टिकल को पाठ्यक्रम में लागू करेगी. आयुर्वेदिक पशु चिकित्सा की पाठ्य सामग्रियों को मौजूदा पाठ्यक्रम में परंपरागत रूप से लागू कराने में भी एमओयू मदद करेगा. इससे परंपरागत ज्ञान की धरोहर को संजोया जा सकेगा और इसकी प्रैक्टिस करने वाले लोगों के बीच प्रचार-प्रसार किया जा सकेगा.

ड्रग एंड कॉस्मेटिक रूल्स (1945) आयुर्वेद, सिद्ध और यूनानी दवाओं का पशुओं में इस्तेमाल के लिए कानूनी संबल प्रदान करता है. आयुष मंत्रालय ने 'आयुर्वेद फॉर्मूलरी ऑफ इंडिया' का चौथा हिस्सा जारी किया है जो पूरी तरह से पशु चिकित्सा की तैयारियों के लिए समर्पित है. 

ये भी पढ़ें: पद्मश्री 'Kisan Chachi’ ने समाज के खिलाफ जाकर की खेती, अब सैकड़ों महिलाओं की बदल रहीं तकदीर

एनडीडीबी ने पारंपरिक पशु चिकित्सा पद्धतियों के उपयोग को कम खर्चीला, प्रभावी और मवेशियों में होने वाली बीमारियों के बेहतर प्रबंधन के लिए कुछ पहल की है. एनडीडीबी इसके लिए एक बड़ा डेटाबेस बना रहा है ताकि साक्ष्यों के आधार पर बीमारियों या कमियों को पकड़ा जा सके और उसके समाधान को बढ़ावा दिया जाए, साथ ही आईईसी मटीरियल तैयार किया जा सके. ये समाधान सफल रहे हैं और इससे पशु चिकित्सा आयुर्वेद को प्रभावी बनाया गया है.

पशुधन क्षेत्र की चुनौतियों का समाधान करने और स्थायी कृषि, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में प्रयासों को बढ़ाने में आयुर्वेदिक पशु चिकित्सा पद्धतियों जैसी पारंपरिक पशु चिकित्सा पद्धतियों की संभावना निर्विवाद रूप से मौजूद है. इन प्रथाओं को अपनाने के लिए नीति और संस्थागत समर्थन की नींव भारत सरकार ने रखी है और इसे राज्यों और अलग-अलग हितधारकों जैसे शिक्षा, अनुसंधान और विकास बिरादरी, चिकित्सकों और संबद्ध उद्योग द्वारा आगे बढ़ाया जाना चाहिए. इस प्रकार पारंपरिक पशु चिकित्सा पद्धतियों और वैल्यू चेन को शामिल करने और बढ़ावा देने से आने वाले दिनों में देश के आर्थिक, कृषि और स्वास्थ्य क्षेत्रों के लिए गुणात्मक और मात्रात्मक लाभ होंगे.(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं) (डॉ. नीलम पटेल, सीनियर एडवाइजर (कृषि) और डॉ. अतिरा एस, रिसर्च ऑफिसर, एग्रीकल्चर वर्टिकल, नीति आयोग)